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वेद से बौद्ध तक

भारत विभिन्नताओं का देश है|इसकी सभ्यता, संस्कृति से लेकर इसका पूरा धार्मिक परिदृश्य तक अनेकरूपता का एक अनुपम उदाहरण है| बात अगर धर्म की की जाए तो भारतीय दृष्टि से धर्म भी भारत का स्वछंद हिस्सा रहा.. कहने का तात्पर्य यह है कि यंहा भिन्न - भिन्न मतावलंबियों ने अपने अनुसार धर्म के नए स्वरूप कों व्याख्यायित कर, प्राचीन भारत की धर्मनिरपेक्षता का परिचय दिया | भारत वेदों का देश रहा है, अतः यंहा धर्म की दृष्टि से पहला युग वैदिक युग हीं रहा |इस युग में चार वेदों ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद की रचना हुई साथ हीं साथ इन वेदों से संबंधित सहिंताओं और ब्राह्मण ग्रंथो की भी रचना हुई | वेदों ने लोगो में धर्म की दृष्टि जागृत कर उन्हें कर्म के महत्व कों समझाया तथा साथ हीं साथ लोगो कों भिन्न प्रकार के धार्मिक कृया कलापो से भी जोड़ा |लेकिन वैदिक युग के अंत तक जन्म आधारित चार वर्णो की व्यवस्था ने जन्म लिया... वर्ण का आधार कर्म नहीं अपितु जन्म होने लगा | ब्राह्मण सर्वेसर्वा बन गए, क्षत्रियों ने राजकार्य संभाला, वैश्यों ने व्यापार कों,शुद्रो कों इन तीनो वर्णो का दास बना दिया गया |उनकी स्थिति दयनीय हो गई ...

भिक्षावृत्ति

भिक्षुक और भिक्षा... इनदोनों शब्दो से लगभग हम सब परिचित हैं, हम सब ने कभी ना कभी उक्त दोनों का सामना अवश्य किया है|आजकल भीख मांगना भारत जैसे विकासशील देशो में तो ट्रेंड बन गया है..यही वजह है कि भिखारियों की बढ़ती तादाद ने समस्या का रूप धारण कर लिया है|  रेलयात्रा हो या बस अड्डा,कहीं कोई पर्यटन स्थल हो या तीर्थ स्थान ..या हमारे घर के पास की सड़क हर जगह भिखारियों का जमावड़ा लगा पड़ा है |  कहीं कोई अपने दुख का रोना रो लोगो से पैसे झींट रहा है तो कहीं कोई छोटे - छोटे बच्चो कों दिखा " भगवान भला करेंगे " की बात कह लोगो से पैसे ऐठ रहा... किसी -किसी ने तो छोटे -छोटे बच्चो का झुण्ड हीं लगा दिया है इस काम के लिए, ऐसे में चारो तरफ एक अलग हीं वृत्ति छायी हुई है 'भिक्षावृति' हर कोई भीख मांगने में व्यस्त है| तो क्या भीख मांगने वाला हर व्यक्ति भिक्षुक है? बिलकुल नहीं भारतीय समाज में भिक्षुक के जिस स्वरूप की परिकल्पना की गयी है वह आज के भिक्षुकों से पुरी तरह भिन्न है, उसका उद्देश्य कभी भी किसी कों ठगना या मुर्ख बनाना नहीं रहा है और ना हीं धन संचित करने के लिए बच्चो कों अग़वा करना,उनका गिर...

छंद

हम सभी जानते हैं कि साहित्य सदा से हीं गद्य या पद्य शैली में लिखा जाता रहा है.. काव्य से तात्पर्य पद्यात्मक शैली से हीं है |संगीतात्मकता, लय, ताल, छंद, अलंकार, रस,सुव्यवस्थीत क्रमब्धता हीं किसी रचना कों काव्य की संज्ञा प्रदान करते है |इनके अभाव में रचना कविता नहीं अपितु नीरस व्याख्यान प्रतीत होने लगती है |इन सभी का काव्य जगत में अपना -अपना महत्व तथा स्थान है | काव्य साहित्य की एक अत्यंत महत्वपूर्ण विधा 'छंद' का भारतीय काव्यशास्त्र से लेकर पाश्चात्य काव्यशास्त्र तक में अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है |प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र से लेकर आधुनिक हिंदी साहित्य की कविताओं कों उठाकर हम देखे तो पाते हैं कि, छंदो की एक विस्तृत भारतीय परम्परा रही है |जो काव्य कों सौंदर्यशील बना सहृदय कों आहलादित करती रही है | छंद क्या है? तथा भारतीय काव्यशास्त्र में इसकी चर्चा क्यों आवश्यक है... इस तथ्य कों समझने से पहले हमें छंद के इतिहास, इसकी व्यूतपती पर विचार - विमर्श करना पड़ेगा | छंदो की उत्पत्ति निश्चित रूप से कब और कैसे हुई  यह अब भी मतभेद का विषय है.. हाँ किन्तु यह तथ्य सर्वमान्य है कि छंद एक प्राच...

काव्य लक्षण

भारतीय साहित्य जगत में काव्य की एक विस्तृत परंपरा रही है.. संस्कृत से लेकर अपभ्रंश,अवहट्ट और हिंदी तक यह परंपरा अपने सबल रूप में विद्यमान है |  भारतीय साहित्य जगत में ना केवल काव्य की रचनाएं हुई है अपितु उसके लक्षण, हेतु, और प्रयोजनो पर भी विशेष ध्यान दिया गया है और उनका भी विस्तृत वर्णन किया गया है|  काव्य के लक्षणों की चर्चा किए बिना हम यह नहीं समझ सकते कि आखिरकार काव्य है क्या और उसके प्रयोजन एवं हेतु क्या है! अतः काव्य को समझने के लिए काव्य के लक्षणों की परिचर्चा आवश्यक और अपरिहार्य हो जाती है |  काव्य किसे कहा जाए और किसे नहीं... अर्थात वें कौन से लक्षण है जो किसी रचना को काव्य की संज्ञा दिलाते हैं और किसी रचना को नहीं.. उपर्युक्त प्रश्न के समाधान का प्रयास भारतीय आचार्यों से लेकर पाश्चात्य विद्वानों ने  अपने अपने गहन अध्ययन के आधार पर किया है|भारतीय साहित्य परम्परा पर दृष्टिपात करने पर हम देखते हैं - भरतमुनी काव्य के लक्षणों पर विचार करने वाले पहले आचार्य भरतमुनि माने जाते हैं।उनके अनुसार - मृदुललितपदाढय गूढ़शब्दार्थहीन जनपदसुखबोध्यम् युक्तिमन्नत्ययोज्यम्। बहुकृ...

गुदड़ी के लाल :लाल बहादुर शास्त्री

राष्ट्र के जन जन के प्रति अनुराग तथा देश की माटी के कण -कण के प्रति श्रद्धा रखने वाले त्यागी, तपस्वी, परोपकारी लाल बहादुर शास्त्री जी भारतीयता के मूर्धन्य हस्ताक्षर हैं|  उत्तर प्रदेश में एक कायस्थ परिवार में जन्मे लाल बहादुर शास्त्री जी के बचपन का नाम नन्हे था.. जब यें केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई और इन्हें अपना गुजर-बसर अपनी मां और अन्य भाई बहनों के साथ अपने ननिहाल में करना पड़ा| यूं तो शास्त्री जी के बारे में बहुत सारी बातें प्रचलित है लेकिन यह बात बहुत कम ही लोग जानते हैं कि इन्होंने काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि ग्रहण करने के बाद अपने नाम से श्रीवास्तव को जो की एक जाति सूचक शब्द है हमेशा - हमेशा के लिए हटा दिया और इनका नाम हो गया लाल बहादुर शास्त्री| इसके पश्चात 'शास्त्री' शब्द को लोगों ने लाल बहादुर के नाम का पर्याय ही बना दिया इसे उपाधि के तर्ज पर नहीं बल्कि उनके नाम के ही रूप में देखा जाने लगा|  महात्मा गांधी के आंदोलनों से प्रभावित होने के साथ-साथ महात्मा गांधी को अपना गुरु मानने वाले लाल बहादुर शास्त्री जी एक सशक्त व्यक्तित्व के धनी व्यक्त...

गाँधी का ग्राम स्वराज

'महात्मा गाँधी', 'बापू', 'अर्धनग्न फ़क़ीर' आदि कई नामो से अभिहित मोहनदास करमचंद गाँधी  का भारतीय इतिहास में अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है |  हम सब जानते हैंं कि गांधी जी के व्यक्तित्व के कई आयाम रहे हैं वह महान देशभक्त, प्रभावशाली समाज सुधारक, सम्मानय राजनेता,प्रखर अधिवक्ता होने के साथ साथ ही भारतीय संस्कृति के सजग प्रहरी  भी रहे हैं|  अहिंसा के अग्रदूत कहे जाने वाले गांधीजी सर्व कल्याण को ही मानवता का प्रथम सोपान मानते थें | दरअसल वे व्यक्ति नहीं एक संस्था थें  एक सिद्धांत थें जिन्होंनेेेे हमेशा सेे सबको लेकर चला|  गांधी जी नें जितना कुछ किया, कहा आज भी वह उतना ही प्रासंगिक है जितना कल था.. अपितु आज उसकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गई है| तभी तो..आज गांधी की ओर लौटने का समय आ गया है गांधी के सिद्धांतों को जमीनी स्तर पर लागू करने का यही असल वक्त  है.. गांधी ने देश के हर पक्ष को उजागर किया,हर समस्या के साथ-साथ उसके समाधान को भी दर्शाया,उनसे कोई पक्ष अछूता नहीं रहा |तभी तो भूमण्डलीकरण के इस युग में भी आज सबसे अधिक चर्चा का विषय गांधी द्वारा सुझाए गए ग्राम स्वरा...

सेवासदन और चरित्रहीन : एक अंतरव्यथा

हिंदी साहित्य जगत में उपन्यास के क्षेत्र में जो स्थान प्रेमचंद  जी का है.. वही बांग्ला साहित्य जगत में शरतचंद्र जी का है | कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है ..  अर्थात साहित्य में कही गई हर बात समाज से जुड़ी होती है.. मूलतः वह समाज को हीं प्रतिबिम्बित करता है..आज हम इसी  साहित्य और समाज के जुड़ाव की चर्चा करेंगे....  'चरित्रहीन'  और ' सेवासदन'  के परिप्रेक्ष्य में|       यत्र नारयस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता यही सार मंत्र है भारत भूमि का... किन्तु यह मंत्र जमीनी स्तर पर कितना कारगर और प्रासंगिक है... इसकी चर्चा हम उपर्युक्त दोनों उपन्यासों के प्रमुख पात्रों  को आधार बना कर सकतें है | सेवासदन उपन्यास  की प्रमुख पात्र सुमन है,जो बड़े हीं लाड़ - प्यार से पली बढ़ी एक महत्वकांक्षी महिला है.. दहेज़ की समस्या के कारण उसका विवाह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति गजाधर से हो जाता है.. जो कुछ हीं दिनों बाद बिना सच्चाई जाने केवल शक़ के आधार पर सुमन को घर से निकाल देता है |     सुमन हताश और निराश हो परिस्थितिविवश होकर दालमंडी में चलीं जाती है...