गाँधी का ग्राम स्वराज
'महात्मा गाँधी', 'बापू', 'अर्धनग्न फ़क़ीर'
आदि कई नामो से अभिहित मोहनदास करमचंद गाँधी का भारतीय इतिहास में अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है | हम सब जानते हैंं कि गांधी जी के व्यक्तित्व के कई आयाम रहे हैं वह महान देशभक्त, प्रभावशाली समाज सुधारक, सम्मानय राजनेता,प्रखर अधिवक्ता होने के साथ साथ ही भारतीय संस्कृति के सजग प्रहरी भी रहे हैं|
अहिंसा के अग्रदूत कहे जाने वाले गांधीजी सर्व कल्याण को ही मानवता का प्रथम सोपान मानते थें |दरअसल वे व्यक्ति नहीं एक संस्था थें एक सिद्धांत थें जिन्होंनेेेे हमेशा सेे सबको लेकर चला|
गांधी जी नें जितना कुछ किया, कहा आज भी वह उतना ही प्रासंगिक है जितना कल था.. अपितु आज उसकी प्रासंगिकता और अधिक बढ़ गई है| तभी तो..आज गांधी की ओर लौटने का समय आ गया है गांधी के सिद्धांतों को जमीनी स्तर पर लागू करने का यही असल वक्त है.. गांधी ने देश के हर पक्ष को उजागर किया,हर समस्या के साथ-साथ उसके समाधान को भी दर्शाया,उनसे कोई पक्ष अछूता नहीं रहा |तभी तो भूमण्डलीकरण के इस युग में भी आज सबसे अधिक चर्चा का विषय गांधी द्वारा सुझाए गए ग्राम स्वराज की हो रही है|
"भारत गांवों का देश है और भारत की वास्तविक आत्मा गांवों में बसती है। जब तक गांव संपन्न नहीं होंगे तब तक देश के वास्तविक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती।"-महात्मा गाँधी
इस कथन के माध्यम से हम समझ सकते हैं कि गांधी की नजर में गांवों का महत्व कितना था.. वह बार-बार गांव की ओर लौट चलने की बात क्यों करते थे और क्यों उन्होंने ग्राम स्वराज
की भी बात कही थी.. दरअसल,गांधी जी ने ये महसूस किया था कि राष्ट्रीय स्तर पर स्वराज के लिए ग्राम स्वराज पहली जरूरत है|गांधी की कल्पना के ग्राम-स्वराज का शाब्दिक अर्थ गांव का अपना शासन था,इसमें एक गांव का पूरी तरह से गणतंत्र होना शामिल है...वास्तव में गांधी की सोच के केंद्र में हमेशा गांव ही थे| गांव के संदर्भ में गांधी जी के विचार दृष्टव्य हैं-
“भारत की स्वतंत्रता का अर्थ पूरे भारत की स्वतंत्रता होनी चाहिए, और इस स्वतंत्रता की शुरुआत नीचे से होनी चाहिए। तभी प्रत्येक गांव एक गणतंत्र बनेगा, अतः इसके अनुसार प्रत्येक गांव को आत्मनिर्भर और सक्षम होना चाहिए। समाज एक ऐसा पैरामीटर होगा जिसका शीर्ष आधार पर निर्भर होगा” ।
गांधीजी ने केवल ग्राम स्वराज की बात ही नहीं की थी ग्राम स्वराज को स्थापित करने की पूरी व्यवस्था भी बतलाई थी इसीलिए उन्होंने औद्योगिकीकरण की जगह कुटीर उद्योग
पर जोड़ दिया था| ग्राम उद्योग के लिए उन्होंने चरखा और मूलतः खादी उद्योग पर जोर दिया| इस तरह उन्होंने स्वदेशी अपनाओ
को मूर्त रूप भी दे दिया| गांधी जी का ग्राम स्वराज रामराज्य व्यवस्था कीं पहली सीढ़ी था | राम राज्य से तात्पर्य उस राज्य से है जहां सभीलोग,सभी प्रकार के सुख से आपूरित हो किसी प्रकार का कोई भी दुख ना हो अर्थात कोई भी वर्ग हाशिये पर ना हो और सभी समान अधिकार और समान सुविधाओं के साथ समाज में शांति से रह सकें |गांधीजी चाहते थे कि भारतीय समाज में समानता हो, ग्रामीण उद्योगों और कुटीर उद्योगों पर आधारित अर्थव्यवस्था हो, भारत आत्मनिर्भर और स्वदेशी संकल्पना पर आधारित हो, भारत के हर नागरिक को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधा प्राप्त हो |
आज जो परिस्थितियां हैं ऐसे में ‘भूमंडलीकरण से ग्राम स्वराज की ओर’ के विचार को अपनाने का समय आ गया है। वैश्वीकरण की प्रक्रिया ने पूरे विश्व को वैश्विक गांव में परिवर्तित कर दिया है। भारत के गांव सामाजिक संगठन की एक महत्वपूर्ण इकाई है। अतः देश को बचाने के लिए गांव को बचाना अति आवश्यकता है ऐसे में गांधी जी का ग्राम स्वराज ही भारतीयता को और देश को सही मायने में बचा सकता है। गाँधी जी नें कहा था "भारत अपने मूल स्वरूप में कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं।"अतः हमें कुटीर उद्योग की ओर पुनः प्रस्थान कर पश्चिम के आद्योगिकीकरण के दंश से देश को बचाना होगा |तभी गाँधी के सपनों का भारत मूर्त रूप लेगा..
वह भारत जिसकी परिकल्पना उन्होंने अपनी पुस्तक में की थी -"मैं भारत को स्वतन्त्र और बलवान बना हुआ देखना चाहता हूँ। भारत का भविष्य पश्चिम के उस रक्त−रंजित मार्ग पर नहीं है जिस पर चलते−चलते पश्चिम अब स्वयं थक गया है। पाश्चात्य सभ्यता का मेरा विरोध असल में उस विचारहीन और विवेकहीन नक़ल का विरोध है, जो यह मानकर की जाती है कि एशिया−निवासी तो पश्चिम से आने वाली हरेक चीज की नक़ल करने जितनी ही योग्यता रखते हैं। यूरोपीय सभ्यता बेशक यूरोप के निवासियों के लिए अनुकूल है, लेकिन यदि हमने उसकी नक़ल करने की कोशिश की, तो भारत के लिए उसका अर्थ अपना नाश कर लेना होगा। मैं साहसपूर्वक यह कह सकता हूँ कि जिन शारीरिक सुख−सुविधाओं के वे गुलाम बनते जा रहे हैं उनके बोझ से यदि उन्हें कुचल नहीं जाना है, तो यूरोपीय लोगों को अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा। संभव है मेरा यह निष्कर्ष गलत हो, लेकिन यह मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि भारत के लिए इस सुनहरे मायामृग के पीछे दौड़ने का अर्थ आत्मनाश के सिवा और कुछ न होगा। हमें अपने हृदयों पर एक पाश्चात्य तत्वनाश का यह बोध वाक्य अंकित कर लेना चाहिये सादा जीवन उच्च चिन्तन'।"
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