काव्य लक्षण

भारतीय साहित्य जगत में काव्य की एक विस्तृत परंपरा रही है.. संस्कृत से लेकर अपभ्रंश,अवहट्ट और हिंदी तक यह परंपरा अपने सबल रूप में विद्यमान है |

 भारतीय साहित्य जगत में ना केवल काव्य की रचनाएं हुई है अपितु उसके लक्षण, हेतु, और प्रयोजनो पर भी विशेष ध्यान दिया गया है और उनका भी विस्तृत वर्णन किया गया है|
 काव्य के लक्षणों की चर्चा किए बिना हम यह नहीं समझ सकते कि आखिरकार काव्य है क्या और उसके प्रयोजन एवं हेतु क्या है! अतः काव्य को समझने के लिए काव्य के लक्षणों की परिचर्चा आवश्यक और अपरिहार्य हो जाती है |

 काव्य किसे कहा जाए और किसे नहीं... अर्थात वें कौन से लक्षण है जो किसी रचना को काव्य की संज्ञा दिलाते हैं और किसी रचना को नहीं.. उपर्युक्त प्रश्न के समाधान का प्रयास भारतीय आचार्यों से लेकर पाश्चात्य विद्वानों ने  अपने अपने गहन अध्ययन के आधार पर किया है|भारतीय साहित्य परम्परा पर दृष्टिपात करने पर हम देखते हैं -


भरतमुनी
काव्य के लक्षणों पर विचार करने वाले पहले आचार्य भरतमुनि माने जाते हैं।उनके अनुसार -

मृदुललितपदाढय गूढ़शब्दार्थहीन

जनपदसुखबोध्यम् युक्तिमन्नत्ययोज्यम्।

बहुकृतरसमार्गम् संधिसधानयुक्तम्

स भवति शुभकाव्यं नाटकप्रेक्षकाणाम्।।

 जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र की रचना की है नाट्यशास्त्र मूलत: नाट्य पर आधारित ग्रंथ है| तत्कालीन समय में नाट्य और काव्य दोनों ही एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते थे अतः ऐसे में भरत मुनि ने नाटक के संदर्भ में जो परिभाषा दी है वह काव्य पर लागू होती है |
 भरत मुनि ने कहा है कि नाट्य अर्थात काव्य में प्रयुक्त भाषा सुकुमार और ललित शब्दों से संयुक्त होनी चाहिए, शब्दों का सम्पूर्ण अर्थ सरलतापूर्वक व्यक्त होना चाहिए..उसमें रसानुकूल शब्दावली का व्यवहार होना चाहिए, नाट्य संधियो के संदर्भ में सरल संधियों का व्यवहार होना चाहिए। ताकि सहृदय भाव को सही तरीके से ग्रहण कर सके |

भामह के अनुसार 
         "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्"
 अर्थात शब्द और अर्थ का सहित भाव ही काव्य है | कहने का तात्पर्य यह है कि केवल शब्द काव्य नहीं होता और न केवल अर्थ काव्य होता है। दोनों का सम्मिलित रूप ही काव्य कहलाता है। 
 अर्थात भामह शब्द और अर्थ को सामान्य महत्व देते हुए दोनों की प्रतिस्पर्धा और सामंजस्य को ही काव्य का नाम देते हैं उन्होंने शब्दालंकार और अर्थालंकार को ही काव्य का मूल माना है |

 रुद्रट
 ने भामह का ही समर्थन करते हुए कहा
'ननु शब्दार्थो काव्यम्।'
 अर्थात शब्द और अर्थ का समन्वय ही काव्य है 

दंडी
 'शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्नापदावली'

अर्थात,वह शब्दार्थ जो अलंकार युक्त हो, काव्य है। अलंकार विहीन शब्दार्थ दण्डी के विचार से काव्य नहीं कहा जा सकता। दंडी चुकि अलंकारवादी आचार्य थे अतः उन्होंने अलंकारप्रियता को दर्शाते हुए अलंकार को अनिवार्य अंग माना है काव्य का, उनकी नजर में वह काव्य, काव्य नहीं कहा जा सकता जो अलंकार विहीन है 

वामन
रीति को काव्य की आत्मा मानने वाले वामन ने काव्य का कोई स्वतंत्र लक्षण नहीं दिया है.. अपनी अलंकार प्रियता के कारण उन्होंने अलंकार को ही काव्य माना है|वामन के ग्रंथ काव्यालंकार सूत्रवृत्ति में दी गई परिभाषा के अनुसार 
’गुणालंकृतयों शब्दार्थर्यो काव्य शब्दो विद्यते।’

अर्थात,गुण और अलंकार से युक्त शब्दार्थ ही काव्य के नाम से जाना जाता है।

कुंतक
वक्रोक्ति सहित शब्द और अर्थ का साहित्य ही काव्य है।
'वक्रोक्ति काव्य-जीवितम्'
 वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मानते हुए कुंतक ने काव्य के लक्षण के रूप में वक्रता पर सबसे अधिक बल दिया है |

मम्मट
"तददोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि"

अर्थात् काव्य दोष रहित और गुण सहित शब्द और अर्थ का समूह है| वह अलंकृत भी होता है किंतु कहीं-कहीं अनलंकृत भी होता है।
 मम्मट के  काव्य लक्षण का भारतीय काव्यशास्त्र में विशिष्ट स्थान है मम्मट ने जो भी काव्य लक्षण निरूपित किया है वह अपने आप में शुद्ध चिंतन के परिणाम के रूप में उभर कर आए हैं उन्होंने अपने ग्रंथ 'काव्यप्रकाश' में अलंकार की अपेक्षा काव्य के गुणों पर सबसे अधिक बल दिया है | उन्होंने काव्य रचना के लिए अलंकारों का होना अनिवार्य नहीं माना है |

 अपनी परिभाषा में अलंकार की अनिवार्यता ना सिद्ध करने के कारण अलंकारवादी आचार्यों ने मम्मट की इस परिभाषा का तीव्र विरोध किया |उनका मानना था कि जो व्यक्ति अलंकार को काव्य के लिए अनिवार्य नहीं मानता है वह अग्नि को भी तापहीन कह सकता है अर्थात उनकी नजर में मम्मट द्वारा दी गई यह परिभाषा पूर्णत: अमान्य थी |

 आधुनिक काल के भी कई विद्वानों ने काव्य को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है जिनमें प्रमुख हैं-

 महावीर प्रसाद द्विवेदी
 के अनुसार "अंतः करण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता है। शिक्षित कवि की उक्तियों में चमत्कार का होना परम आवश्यक है। यदि कविता में चमत्कार नहीं, कोई विलक्षणता नहीं, तो उससे आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।"

 हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक और आचार्य रामचंद्र शुक्ल
 ने भी अपनी पुस्तक चिंतामणि में काव्य को परिभाषित कुछ इस रूप में किया है -
"जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय के मुक्त अवस्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती है उसे कविता कहते हैं।"
 स्पष्ट है कि आचार्य ने रस को काव्य के लिए अनिवार्य माना है |

 पाश्चात्य साहित्य पर जब हम नजर दौड़ाते हैं तो देखते हैं कि पाश्चात्य विद्वानों ने भी काव्य को अपने-अपने ढंग से परिभाषित किया है जिनमें कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्न है-

अरस्तु के अनुसार

Poetry is an art. Art is imitation of nature."

अर्थात्

काव्य एक  कला है और कला प्रकृति का अनुकरण है।


मिल्टन के अनुसार 

  Poetry should be simple, sensuous and impassioned."

अर्थात 

कविता सरल, ऐंद्रिय तथा रागात्मक होनी चाहिए।

 ड्राईडन नेे काव्य के लिए दो परिभाषाएं दी है
 जिनमें पहले परिभाषा है
"Poetry is an articulate music."

 अर्थात् 

कविता स्पष्ट संगीत है।
 और दूसरी परिभाषा है -

 "Poetry is an imitation of nature by pathetic and numerous speech."

 उपर्युक्त विद्वानों और उनके द्वारा दी गई  परिभाषाओं को देखने के पश्चात हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि काव्य को एक निश्चित ढर्रे में प्रस्तुत कर देना असंभव है, इसीलिए लगभग सभी विद्वानों की परिभाषा में कुछ समानता है तो कुछ असमानता भी है |अर्थात कहने का तात्पर्य है कि सभी ने काव्य को अपनी दृष्टि से देखा है और उसे अपने अनुभव के आधार पर व्यक्त किया है | काव्य किसी निश्चित परिपाटी का अनुसरण नहीं करता और ना ही वह किसी बंधन में बँधा हुआ है |अतः  यही कारण है कि काव्य कि आज तक कोई निश्चित परिभाषा नहीं बनी है तभी तो महादेवी वर्मा जी भी इस तथ्य को स्वीकारते हुए कहती हैं -

कविता मनुष्य के हृदय के समान पुरातन है परंतु अब तक उसकी कोई ऐसी परिभाषा नहीं बन सकी जिसमें तर्क वितर्क की संभावना नहीं रही हो धुंधले अतीत भूत से लेकर वर्तमान तक.... जो कुछ काव्य के रूप में और उसकी उपयोगिता के संबंध में कहा जा चुका है। वह परिणाम में कम नहीं परंतु अब तक न मनुष्य के हृदय का पूर्ण परितोष हो सका है और न ही उसकी बुद्धि का समाधान।"


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