सेवासदन और चरित्रहीन : एक अंतरव्यथा

हिंदी साहित्य जगत में उपन्यास के क्षेत्र में जो स्थान प्रेमचंद जी का है.. वही बांग्ला साहित्य जगत में शरतचंद्र जी का है |
कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है
.. अर्थात साहित्य में कही गई हर बात समाज से जुड़ी होती है.. मूलतः वह समाज को हीं प्रतिबिम्बित करता है..आज हम इसी 
साहित्य और समाज के जुड़ाव की चर्चा करेंगे.... 'चरित्रहीन' और 'सेवासदन' के
परिप्रेक्ष्य में|

     यत्र नारयस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता

यही सार मंत्र है भारत भूमि का... किन्तु यह मंत्र जमीनी स्तर पर कितना कारगर और प्रासंगिक है... इसकी चर्चा हम उपर्युक्त दोनों उपन्यासों के प्रमुख पात्रों  को आधार बना कर सकतें है |

सेवासदन
उपन्यास की प्रमुख पात्र सुमन
है,जो बड़े हीं लाड़ - प्यार से पली बढ़ी एक महत्वकांक्षी महिला है.. दहेज़ की समस्या के कारण उसका विवाह एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति गजाधर से हो जाता है.. जो कुछ हीं दिनों बाद बिना सच्चाई जाने केवल शक़ के आधार पर सुमन को घर से निकाल देता है |
    सुमन हताश और निराश हो परिस्थितिविवश होकर दालमंडी में चलीं जाती है और वेश्या बन जाती है | अब चाह कर भी उसका इस नरक से निकल पाना मुश्किल हो जाता है | कुछ महापुरुषों की बदौलत वह इस नरक से मुक्ति भी पा लेती है. किन्तु बाहर की दुनिया उसे चैन से जीने नहीं देती.... विधवा आश्रम  से लेकर
उसकी अपनी बहन के घर तक उसका अपमान होता है. उसको ताना मारा जाता.. उसे वेश्या कह धिक्कारा जाता तथा उससे अछूतो जैसा व्यवहार होता |यह अत्याचार इतना बढ़ जाता है कि आगे चलकर सुमन को सेवासदन का सहारा लेना पड़ता है... वह, चरित्र का पाठ पढ़ाने वाले
इस समाज से दूर चलीं जाती है  जंहा अकेले घर की चौखट लाँघने से स्त्रिया अपवित्र और चरित्रहीन हो जाती है.. और पुरुष तथागत...


चरित्रहीन
उपर्युक्त उपन्यास में दो स्त्री पात्रों .. किरणमयी और सावित्री द्वारा लेखक नें भारतीय समाज के चेहरे पर लगे नेकफरिश्ती के झूठे मुखौटे को उखाड़ फेका है |

चरित्रहीनता का पैमाना कितना प्रचलित और सामान्य है, हमारे समाज में.. इसी को दर्शाता है सावित्री का चरित्र. सावित्री एक ब्रह्मण परिवार की बेटी है.. जिसका पति मर चूका है.. वह मेस में काम करके अपना गुजारा करती है .. सतीश के प्रति अगाध प्रेम होंनें के बावजूद भी वह सतीश से खुद को दूर रखती है.. सतीश भी सावित्री के प्रति अनुरक्त है किन्तु उसका प्रेम इन समाज वालो की हीं भांति है.. जो तनिक सी विमुखता पर सावित्री के चरित्र पर लांछन लगा देता है | सावित्री आदर्शशीलता और संस्कार की प्रगाढता की मिशाल है.. किन्तु यह समाज उसे  कदम - कदम पर चरित्र का पाठ पढ़ाता रहता है और यह बताता रहता है कि एक अकेली स्त्री चरित्रवान नहीं हो सकती |

किरणमयी
बेबाक चरित्र की स्त्री है.. पति से प्रेम की प्राप्ति ना होने पर वह अन्य पुरुषो के प्रति आसक्त होती है.. कभी उपेंद्र तो कभी दिवाकर उसकी इस आसक्ति के केंद्र में होतें हैं.. चूकि किरणमयी सुन्दर, तार्किक,  बुद्धिशील महिला है अतः पुरुषों का उसके प्रति अनुरक्त होना स्वाभाविक है..पुरुषों की यह अनुरक्ति उनकी चरित्रहीनता नहीं अपितु स्वाभाविक आकर्षण है.. किन्तु किरणमयी की आसक्ति इस समाज में स्त्री के चरित्रहीन होने की प्रमाणिक पराकाष्ठा है |

उपर्युक्त दोनों उपन्यासों के स्त्री पात्रों के चरित के आधार पर हम कह सकते हैं कि.. उपन्यासकारों नें भारतीय समाज में स्त्री, उसकी स्थिति, उसकी खिन्नता, उसके विरोध, उसका मार्मिक जीवन, उसके दृष्टिकोण, उसके प्रति समाज के दृष्टिकोण    आदि का जितना भी वर्णन किया है वह शब्द प्रति शब्द प्रासंगिक है.. आज भी ना जाने कितनी हीं सुमन वेश्या के कलंक से मुक्ति की छटपटाहट में है किन्तु इस समाज नें अपना दरवाज़ा उनके लिए हमेशा के लिए बंद कर रखा है... आज भी ना जाने कितनी हीं सावित्री ऐसी है जिन्हे कदम दर कदम चरित्रहीन के कलंक से मुक्ति पाने के लिए अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है.. और आज भी ना जाने कितनी हीं किरणमयी हैं.. जो केवल प्रेम की अभिलाष में भटक रही हैं और उनका यह भटकाव उन्हें पागल होने की स्थिति तक पहुंचा देता है |

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