छंद

हम सभी जानते हैं कि साहित्य सदा से हीं गद्य या पद्य शैली में लिखा जाता रहा है.. काव्य से तात्पर्य पद्यात्मक शैली से हीं है |संगीतात्मकता, लय, ताल, छंद, अलंकार, रस,सुव्यवस्थीत क्रमब्धता हीं किसी रचना कों काव्य की संज्ञा प्रदान करते है |इनके अभाव में रचना कविता नहीं अपितु नीरस व्याख्यान प्रतीत होने लगती है |इन सभी का काव्य जगत में अपना -अपना महत्व तथा स्थान है |

काव्य साहित्य की एक अत्यंत महत्वपूर्ण विधा 'छंद' का भारतीय काव्यशास्त्र से लेकर पाश्चात्य काव्यशास्त्र तक में अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है |प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र से लेकर आधुनिक हिंदी साहित्य की कविताओं कों उठाकर हम देखे तो पाते हैं कि, छंदो की एक विस्तृत भारतीय परम्परा रही है |जो काव्य कों सौंदर्यशील बना सहृदय कों आहलादित करती रही है |

छंद क्या है? तथा भारतीय काव्यशास्त्र में इसकी चर्चा क्यों आवश्यक है... इस तथ्य कों समझने से पहले हमें छंद के इतिहास, इसकी व्यूतपती पर विचार - विमर्श करना पड़ेगा |
छंदो की उत्पत्ति निश्चित रूप से कब और कैसे हुई  यह अब भी मतभेद का विषय है.. हाँ किन्तु यह तथ्य सर्वमान्य है कि छंद एक प्राचीन विधा है |
छंदो की प्राचीनता का भान तो इसी बात से हो जाता है कि वेदो का एक दूसरा नाम छंदस भी है |वेदों के अर्थ की प्रतीति के लिए छंदों का ज्ञान अनिवार्य है. छन्द की लय, गति, यति आदि के ज्ञान के बिना वेदमंत्रों का शुद्ध पाठ नहीं किया जा सकता|सर्वप्रथम पिंगलाचार्य ने वैदिक और लौकिक छंदों का शास्त्रीय विवेचन प्रस्तुत किया था |इस आधार पर छन्द:शास्त्र को पिंगल शास्त्र भी कहते है.. इसी कारण छन्द को हम पिंगल के नाम से भी जानते हैं। क्यूंकि इसके प्रणेता पिंगल नाम के ऋषि थे।


छंद के अर्थ कों लेकर विद्वानों में मतभेद की स्थिति बनी रही है, किसी ने इसे छादन कहा है तो किसी ने बंधन
तथा किसी - किसी ने तो इसे एक धातु के रूप में हीं रूपायित कर दिया है| इसी तरह छंद की परिभाषा कों लेकर भी विद्वानों में मतभेद रहा है किन्तु जगनन्नाथ प्रसाद भानु द्वारा दीं गयी परिभाषा अधिक सटीक प्रतीत होती है,आधुनिक हिन्दी साहित्य शास्त्र परम्परा का अध्ययन आचार्य जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के छंद और 'प्रभाकर' और 'काव्य प्रभाकर' को छोड़कर नहीं किया जा सकता, वे हिन्दी के सर्वप्रथम विद्वान हैं जिन्हें 'महामहोपाध्याय' की उपाधि से विभूषित किया गया। उनसे पूर्व यह सम्मान केवल संस्कृत के ब्राह्मण विद्वान को ही मिलता था।... छंद कों उन्होंने निम्न रूप में परिभाषित किया है -
मत्त बरण गति यति नियम, अंतहि समता बंद ।

जा पद रचना में मिले, "भानु" भनत स्वइ छंंद ।।


अर्थात मात्राओं तथा वर्णो की रचना, गति तथा यति का नियम और चरणान्त में समता जिस कविता में पायी जाए वो छंद है |उपर्युक्त परिभाषा कों स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें उपर्युक्त सभी शब्दो के अर्थ जानने होंगे -
*चरण
प्रत्येक छन्द में चरणों की संख्या निश्चित होती है।
पहले और तीसरे चरण को विषम चरण तथा दूसरे और चौथे चरण को सम चरण कहते हैं।

*मात्रा और वर्ण

वर्णों के उच्चारण काल को मापने की सबसे छोटी इकाई मात्रा है।स्पष्ट रूप से कहे तो किसी वर्ण के उच्चारण में जो समय लगता है, उसे ‘मात्रा’ कहते हैं ‘मात्राएँ’ दो प्रकार की होती हैं लघु  और गुरु|छंद शास्त्र में वर्ण के दो भाग हैं – लघु वर्ण और गुरु वर्ण|


*दल 

अधिकतर छन्दों में एक चरण एक पंक्ति में लिखा तथा पढ़ा जाता है। कुछ छन्दों में दो-दो चरण मिलाकर एक पंक्ति में लिखे जाते है । दो चरणों से मिली हुई एक पंक्ति को एक ‘दल’ कहते हैं।

*गति

कविता के प्रवाह को ही गति कहते हैं।गति या प्रवाह से हमारा तात्पर्य लयपूर्ण पाठ-प्रवाह से है|

*यति /विराम

किसी छन्द के चरण को पढ़ते समयं बीच में जहाँ कहीं थोड़ी देर रुका जाता है, उसे यति कहते हैं|

* संख्या

वर्णों और मात्राओं की गणना को संख्या कहते हैं।

*क्रम 

लघु वर्ण तथा गुरु वर्ण के स्थान निर्धारण को क्रम कहते हैं।

*गण

तीन वर्णों के समूह का एक गण होता है जिनमें लघु ‘। ‘ और गुरु ‘s’ वर्णों का निश्चित क्रम होता है। गण आठ होते हैं।

ये मा ता रा ज भा न स ल गा’

यगण।

तगण ।

रगण।

जगण।

 भगण I

 नगण ।

 सगण ।

*तुक

छंद के चरणान्त की अक्षर मैत्री को तुक कहते हैं।

तुक दो प्रकार के होते हैं –

(a) तुकांत 

(b) अतुकांत

छंद के प्रकार

यूँ तो छंद कई प्रकार के होते हैं किन्तु प्रमुख छंद हैं -

क) मात्रिक छन्द

ज़िस छन्द की प्रत्येक पंक्ति (चरण) में मात्राओं की निश्चित संख्या का नियम होता है, उसे मात्रिक छन्द कहते हैं।

जैसे दोहा, चौपाई आदि।

(ख) वर्णिक-छन्द

जिस छन्द की प्रत्येक पंक्ति (चरण) में वर्णों की निश्चित संख्या का नियम होता है, उसे वर्णिक छन्द कहते हैं 

मात्रिक और वर्णिक छन्दों के तीन-तीन भेद हैं-

(क) सम  (ख) अर्द्धम (ग) विषम

कुछ प्रमुख छंदो के नाम 

दोहा छंद,

 चौपाई छंद, सोरठा छंद,

 बरवै छंद, कुण्डलिया छंद,

छप्पय छंद,रोला छंद,वीर/आल्हा छंद

उल्लाला छंद,गीतिका छंद,हरिगीतिका छंद


चूकि छंद साहित्यिक जगत की प्राचीन विधा हैं अतः इसका विस्तार बहुत अधिक हैं.. पूरा काव्य संसार हीं छंदो के प्रभाव से अछूता नहीं रहा हैं... आधुनिक युग में मुक्त छंद की प्रणाली विकसित हो जाने पर भी छंद अपना स्थान खोये नहीं हैं |यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हैं |आज भी सहृदय काव्य की तुकबंदी और संगीतात्मकता का प्रेमी बना हुआ हैं |हाँ यह सत्य हैं कि बिना छंदो की भी कविता हो सकती सिडनी के शब्दो में कहे तो -छंद कविता के अलंकार मात्र हैं मूलतत्व नहीं नहीं.. किन्तु ये कविताएं पद्य की तुलना में गद्यांत्मक अधिक प्रतीत होती हैं |अर्थात कहने का आशय यह हैं कि काव्य यदि काव्यगत शैली में लिखा गया तो वह छंदोबद्ध अवश्य होगा.मुक्त छंद की प्रणाली अपनाने पर वह पड्यात्मकता से दूर हो जायेगा, क्योंकि बिना छंद के काव्य में लयातत्मकता का होना असम्भव है|

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