महावीर प्रसाद द्विवेदी :एक युगपुरुष

हिंदी साहित्य हीं नहीं अपितु हिंदी भाषी समाज के अमर और मूर्धन्य नाम महावीर प्रसाद द्विवेदी एक युगनायक हीं नहीं, एक युगसृष्टा भी हैं |

 1864 ई . में रायबरेली में जन्मे द्विवेदी जी का संबंध एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से था.. इन्हें विरासत में कोई पैतृक सम्पति ना मिली थी |हाल तो यह था कि आर्थिक तंगी के कारण इन्हें अपनी पढ़ाई बीच में हीं छोड़नी पड़ी और 22 रु. मासिक की नौकरी रेलवे में करनी पड़ी किन्तु इनकी पढ़ाई की ललक तब भी बरकरार रही और... नौकरी करते हुए इन्होने अपना अध्ययन जारी रखा और साहित्य की निस्वार्थ भाव से सेवा की  |दरअसल ये संघर्ष के प्रतिमूर्ति थें इनका पूरा जीवन हीं.. संघर्ष की गाथा है |

हिंदी साहित्य के उत्थान की ज़ब हम बात करते हैं तो भारतेन्दु के बाद किसी का नाम उभरकर हमारे सामने आता है तो वो है.. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का |
 भारतेन्दु नें जिस पौधे का बिजारोपण किया.. द्विवेदी जी नें उसे हीं पुष्पीत,पल्लवित और विकसित किया... ना केवल गद्य और पद्य में साहित्य की भाषा खड़ी बोली हिंदी को प्रतिष्ठित किया अपितु साहित्य की अनेक विधाओं का विकास भी किया |

इन्होने अपने कर्मठ व्यक्तित्व की छाँव में मैथलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय आदि ना जाने कितने हीं कवियों/ साहित्यकारों का निर्माण किया | सही मायने में ये एक युग्दृष्टा थें |
 यह इनके अद्भुत प्रतिभासंपन्न व्यक्तित्व का हीं प्रमाण है कि इन्होने 1903 में ' सरस्वती पत्रिका '  का सम्पादन भार संभाला और 1920
तक बड़ी हीं कुशलता से उक्त कर्तव्य का निर्वाह किया, तभी तो उक्त कलखंड को द्विवेदी युग की संज्ञा दें दी गई |
द्विवेदी जी नें जो किया जितना किया हिंदी साहित्य के उत्थान और विकास के लिए किया | इन्होने परिचयात्मक, आलोचनात्मक, गवेष्णात्मक, भावात्मक, व्यंग्यात्मक
शैली को अपनाते हुए साहित्य को नई दिशा और दशा दी | इनकी मौलिक से लेकर अनुदित सभी प्रकार की रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं |

* इन्होने श्रीहर्ष के संस्कृत महाकाव्य नैषधीयचरितम् पर अपनी पहली आलोचना पुस्तक 'नैषधचरित चर्चा ' नाम से लिखी (1899), जो संस्कृत-साहित्य पर हिन्दी में पहली आलोचना-पुस्तक भी है।
*इन्होने संस्कृत के कुछ महाकाव्यों के हिन्दी में औपन्यासिक रूपांतर भी किये, जिनमें कालिदास कृत रघुवंश, कुमारसंभव, मेघदूत , किरातार्जुनीय प्रमुख हैं।
*इनकी मौलिक पुस्तकों में नाट्यशास्त्र(1904 ई.), विक्रमांकदेव चरितचर्या(1907 ई.), हिन्दी भाषा की उत्पत्ति(1907 ई.) और संपत्तिशास्त्र(1907 ई.) प्रमुख हैं तथा अनूदित पुस्तकों में शिक्षा (हर्बर्ट स्पेंसर के 'एजुकेशन' का अनुवाद, 1906 ई.) और स्वाधीनता (जान, स्टुअर्ट मिल के 'ऑन लिबर्टी' का अनुवाद, 1907 ई.)।
*इनके छोटे-बड़े ग्रंथों की संख्या कुल मिलाकर 81 है। पद्य के मौलिक-ग्रंथों में काव्य-मंजूषा, कविता कलाप, देवी-स्तुति, शतक आदि प्रमुख है।
निष्कर्षतः  हम कह सकते हैं कि द्विवेदी जी सर्जक भी थे, आलोचक भी और अनुवादक भी| वे ऐसे कठिन समय में हिंदी के सेवक बन
कर उभरे ज़ब हिंदी अपने कलात्मक विकास की तो क्या सोचती, नाना प्रकार के अभावों से ऐसी बुरी तरह पीड़ित थी कि उसके लिए उनसे निपट पाना ही दूभर हो रहा था| आज हम हिंदी के जिस गद्य से नानाविध लाभान्वित हो रहे हैं, उसका वर्तमान स्वरूप, संगठन, वाक्य विन्यास, विराम चिह्नों का प्रयोग तथा व्याकरण की शुद्धता आदि सब कुछ काफी हद तक आचार्य द्विवेदी या उनके द्वारा प्रोत्साहित विभूतियों की ही देन है.

वे हिंदी के उन गिने चुने आचार्यों में से एक हैं जिन्होंने हिंदी के निर्माणकाल में इन चीजों पर विशेष बल देकर लेखकों की अशुद्धियों को इंगित करने का खतरा उठाया. स्वयं तो लिखा ही, दूसरों से लिखवाकर भी हिंदी के गद्य को समृद्ध किया|
इस तरह द्विवेदी जी की पूरी जीवनगाथा सर्व में सन्नीहित, समर्पित और विकसित है.. स्व से उसका जुड़ाव नहीं |

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