बड़ा खतरनाक है....गांव का शहर होना

'परिवर्तन संसार का नियम है'
 लेकिन यह परिवर्तन कितना और किस हद तक होना चाहिए, यह प्रश्न आज विचारणीय हो गया है..
 क्या परिवर्तन का अर्थ अपनी सभ्यता और संस्कृति को विसराना है?
 क्या परिवर्तन का अर्थ अपने सनातन मूल्यों की तिलांजलि देना है?
 क्या परिवर्तन का अर्थ एकल परिवार की सृष्टि करना है?
 निसंदेह जवाब होगा नहीं|

 लेकिन आज स्थिति तो कुछ ऐसी ही देखने को मिल रही है| गांव की ही बात करें हम तो देखते हैं कि गांव और गांव वालों का स्वरूप कितना अधिक परिवर्तित हो गया है| 60,70 वर्ष पीछे के गांव और आज के गांव में जमीन आसमान का अंतर आ गया है...

 आधुनिक बनने की होड़ में लोगों में अंधानुकरण की प्रवृत्ति घर कर गई है| अब तो गांव भी इससे अछूते नहीं रहें है |गांव और गांव वाले आधुनिकता रूपी इस मैराथन में अपने पूर्वजों की संस्कृति को रौँदते हुए दौड़ रहे हैं, और हर रोज आधुनिकता की नई - नई परिभाषा गढ़ रहे हैं,अपने अपने स्तर पर अपने अपने ढंग से-
 शादी ब्याह में अब लोकगीत ढोलक और शहनाई की जगह डीजे और आर्केस्ट्रा का चलन हो गया है,

 फगुआ और दीपावली जैसे त्योहारों की तो रौनक ही छीन ली है इस शहरीकरण के राक्षस ने;

गांव कि हरियाली,ओं लहलहाती फसले,ओं पशुओ का चारागाह सब भेंट चढ़ रहें हैं आधुनिकता की आड़ में छिपे पूंजीवाद के  |

 सावन के झूले और फसलों की कटाई पर गाए जाने वाले गीत तो कहीं लुप्त से हो गए हैं

 पाश्चात्य संस्कृति के अनुकरण और आधुनिकता की अधूरी जानकारी ने ग्राम वासियों में भी आधुनिकता के अर्थ को केवल फ्रिज, रेफ्रिजरेटर,टीवी,कूलर, एसी,सोफा और मॉडर्न डिजाइन के कपड़े तक हीं सिमटा कर रख दिया है कहने का तात्पर्य यह है कि आधुनिकता केवल कपड़ों में ही सिमट कर रह गयी है विचारों में आधुनिकता अभी भी लापता  है|


 तकनीकी साधनों के विकास और कृषि में तकनीक के प्रयोग ने निश्चय ही गांव वालों को आर्थिक तौर पर मजबूत बनाया है, यह आधुनिकता का एक विशेष बिंदु है किंतु इसी आधुनिकता की ललक ने उनके सनातन मूल्य और संस्कृति को झकझोर कर भी रख दिया है|
 आधुनिकता की इस बेतुकी ललक ने लोगों में एकल परिवार की भावना को सुदृढ़ किया है | लोग परिवार से कटते जा रहें है,अब गांव उनके लिए उनकी माँ या मातृभूमि नहीं केवल और केवल गर्मी की छुट्टियों में वक्त गुजारने का एक ठहराव मात्र है|

 गांधी जी कहते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है अतःगांव को बचाना आवश्यक है|
निश्चय हीं, गांधीजी ने गांव की सभ्यता संस्कृति और विचार की स्वच्छता को देखकर ऐसा कहा होगा,लेकिन आज यह सब कुछ हाशिए पर पहुंच गया है लोग स्वार्थी हो रहें हैं , एकता का स्थान भिन्नता ले रहा है सहयोग की भावना लगभग समाप्त होने के कगार पर है,शहरों की तरह गांव में भी बड़ी-बड़ी इमारतें बन रही है और वृक्षों का उन्मूलन किया जा रहा है, जंगलों का भी दोहन हो रहा है, नदियों और तालाबों को इस अंधे आधुनिकीकरण  की प्रवृत्ति ने सबसे पहले हीं अपना शिकार बना लिया था | कुल मिलाकर बात इतनी हीं है कि अब गांव-गांव नहीं रह गए हैं ओं तैयार हैं बनने को निर्मम और कठोर शहर....


अतः आज आवश्यक हो गया है कि गावों को बचाया जाये,क्यों कि उनमे हीं बसता है हमारा असल भारत जो... अतिथि देवो भवः से लेकर राष्ट्र देवो भवः जैसे भावनाओं से आपूरित है |पूंजीवादी व्यवस्था के इस अस्त्र से बचने का एक हीं उपाय है,और ओं उपाय  है - जागृत होना |ज़ब तक हम स्वयं ना चेतेंगे तब तक हमें  पंत कि ग्राम श्री कविता का गांव ना दिखेगा जिनमे चारो तरफ हरियाली और खुशहाली है...
अब रजत-स्वर्ण मंजरियों 
लद गईं आम्र तरु की डाली।
झर रहे ढाँक, पीपल के दल,
हो उठी कोकिला मतवाली।
महके कटहल, मुकुलित जामुन,
जंगल में झरबेरी झूली।
फूले आड़ू, नीबू, दाड़िम,
आलू, गोभी, बैंगन, मूली।

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