मानवीनी भवाई : आदमी के व्यथा की कथा

पन्नालाल पटेल का गुजराती साहित्य जगत में वही स्थान है जो हिंदी साहित्य जगत में प्रेमचंद जी का है अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि यह ग्रामीण अंचल विशेष के साहित्यकार हैं | इन्होंने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से ग्रामीण जीवन को उकेरा है| पटेल जी का उक्त उपन्यास भी आंचलिक उपन्यास की श्रेणी में आता है| जैसा कि हम जानते हैं कि आंचलिक उपन्यास की विशिष्टता होती है कि वह उक्त अंचल विशेष की पूरी संस्कृति को उजागर करता है अतः इस उपन्यास में भी रचनाकार ने एक अंचल विशेष की पूरी संस्कृति को विस्तृत फलक के साथ प्रस्तुत किया है|
उक्त उपन्यास की रचना पन्नालाल पटेल जी ने आजादी के समय की थी |हिंदी में इसका पहली बार रूपांतरण 1970 में हुआ इसके अनुवादक थे,डॉ रघुवीर चौधरी जी, जिन्होंने हिंदी में 'जीवन एक नाटक' शीर्षक से इस उपन्यास का रूपांतरण किया|लेकिन साहित्य जगत में यह   'मानवीय भवाई' नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है |यह इसकी विशिष्टता और सरलता का हीं परिणाम है कि 1985 में इसे भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजा गया|
 प्रस्तुत उपन्यास में उपन्यासकार ने ग्राम्य जीवन को उसके समकालीन यथार्थ बोध से जोड़ते हुए करुणा, रुदन, अनैतिकता, षड्यंत्र,विरह, प्रेम आदि का बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है|
 'मानवीय भवाई' का अर्थ है मानव जीवन का नाटक अर्थात यह पूरा उपन्यास आदमी के व्यथा की दारुण कथा को प्रस्तुत करता है|
 फ्लैश बैक तकनीक का प्रयोग करतेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे हुए रचनाकार ने इस उपन्यास को प्रारंभ किया है |

 यूं तो इसकी कथा तीन भागों में विभक्त है
 मानवीनी भवाई
भांग्याना भेड़ू
घम्मड़ ब्लल्लोड़ूम
 किंतु तीनों ही भागों का पूरा ताना-बाना कालू और राजू को केंद्र में रखकर बुना गया है| इनके अलावा और भी कई गौण पात्र और सहायक पात्र है इस उपन्यास में, किंतु मूल पात्र यही दोनों है और इन्हीं के प्रेम और विरह की पूरी कथा अकाल और उसकी विभीषिका को विस्तृत रूप में विस्तृत फलक पर प्रस्तुत करती है|
 उपन्यासकर ने बड़ी ही सरलता और सहजता के साथ अंचल विशेष की संस्कृति का जीवंत चित्रण किया है खेत खलिहान, फसलों का कांपना लोकगीत, जंगल,गवना के गीत, नामकरण संस्कार,शादी ब्याह की रश्म आदि का उन्होंने बिल्कुल वैसा ही चित्र उकेरा है जैसा भारतीय समाज में दृष्टिगोचर होता है| उक्त कथा भीलो की कथा है यूं तो यह कथा 'छप्पनिया अकाल' को रूपायित करती है जो उन्नीस सौ के करीब भारत में पड़ा था,उस समय के दारुण दृश्य को प्रस्तुत करती है लेकिन इसके साथ ही साथ यह मानव मन के अकाल को भी बखूबी चित्रित करती है |

 मूलतः यह कथा दो ध्रुवों में सिमट कर रह गई है
 अकाल और त्रासदी
 विरह भोगने की त्रासदी 

 कालू और राजू दोनों ही एक दूसरे से अनंत प्रेम करते हैं |बचपन में उनकी सगाई भी हो गई रहती है, लेकिन उन्हीं की पड़ोसन माली के द्वेष के कारण उनका विवाह नहीं हो पाता है और दोनों एक दूसरे से बिछड़ जाते हैं |राजू का विवाह दयाल जी से हो जाता है और कालू का विवाह दयाल जी की भतीजी भली से | कालू विवाह के बाद भी राजू को भूल नहीं पाता वह राजू से बार-बार अपना प्रेम प्रकट करता है और उससे भी प्रेम की चाह रखता है लेकिन राजू जो कि एक आर्याव्रत स्त्री का आदर्श चरित्र प्रस्तुत करती है वह सही मायने में नैतिक मूल्यों से आपूरित है| उसका चरित्र सबसे प्रांजल चरित्र है |वह अपने विकलांग और अधेड़ पति के प्रति पूर्णतः निष्ठावान है, वह कालू के प्रेम को समझती है लेकिन अपने कर्तव्यों से समझौता नहीं करती |कालू कितनी बार हीं क्रांतिकारी बन जाता है प्रेम के लिए लेकिन राजू के समझाने बुझाने पर वह शांत भी हो जाता है वह कभी भी राजू को जबरन हासिल नहीं करना चाहता | राजू का पति भले ही अधिक उम्र का है वयोवृद्ध है लेकिन राजू उसके   प्रति पूर्णतः निष्ठावान हैं,वह समर्पित है अपने विकलांग पति के प्रति| वह अपने पूर्व प्रेम की खातिर उसे धोखा नहीं देती| ऐसे ही चलता रहता है कालू का राजू के पास आना जाना लगा रहता है और उपन्यास के उत्तरार्द्ध में हम देखते हैं कि छप्पनिया अकाल पड़ता है| विभीषिका का ऐसा दारुण दृश्य उभर कर सामने आता है कि मानवता थर्रा जाती है |
 पेड़ों के पत्ते झड़ जाते हैं, अनाज का कहीं नामोनिशान नहीं होता,लुटेरे रात को आते हैं और धावा बोलते हैं लूटकर बचे - कुचे अनाज भी लेकर चले जाते हैं, भूख की तड़प इतनी अधिक बढ़ जाती है कि आदमी - आदमी के खून का प्यासा हो जाता है, नैतिक और अनैतिक सबकी समझ धरी की धरी रह जाती है, सब कुछ एक तरह से खत्म हुआ नजर आता है, धरती फटी नजर आती है, बादलों का कहीं नामोनिशान नहीं ,नदी सूख जाती है चारों तरफ अस्थि पंजर ही दिखते हैं,सैकड़ों की संख्या में लोग मरे पड़े रहते हैं,जो बचे रहते हैं वह भी हड्डियों के कंकाल हड्डियों के ढांचे नजर आते हैं|
 स्थिति ऐसी हो जाती हैं कि कुत्तों को दिए गए दाने पर लोग जानवरों की तरह टूट पड़ते हैं |भूख से व्याकुल लोग जानवरों के कच्चे मांस नोच - नोच कर खाने लगते हैं |एक भीलनी औरत तो अपने बच्चे को खाने लगती है| स्थिति भयावह से भी बहुत अधिक भयावह हो जाती है इसी बीच दयाल जी का जो कि राजू के पति हैं निधन हो जाता है, राजू विधवा हो जाती है |भली जो कि कालू की पत्नी है अपना शरीर बेचने लगती है| अब केवल राजू और कालू दो ही बचते हैं जिसमें कालू की हालत नाजुक हो जाती है लेकिन राजू की सूझबूझ और उसकी बुद्धिमता के कारण कालू की जिंदगी बच जाती है और राजू और कालू का अंत मे मिलन हो जाता है और आसमान में खुशियों के काले बादल छा जाते हैं
 इस तरह विरह के बाद प्रेम के प्रस्फूटन और अकाल से उबरने वाले बादलों के साथ ही कथा समाप्त हो जाती है और लेखक लिखते हैं कि
 "अब तो काल भी राजू और कालू को मार नहीं सकता|"
 निष्कर्ष रूप में हम यही कह सकते हैं कि विकट परिस्थितियों में भी स्वाभिमान और आत्मविश्वास तथा संघर्ष के दामन को न छोड़ने का ही जीवंत दस्तावेज है यह उपन्यास| इस उपन्यास का प्रमुख उद्देश्य आशावाद का संचरण करते हुए यह बताना है कि प्रेम पलायन नहीं है अपितु प्रेम संघर्ष है,जीवन है, जिजीविषा है,अप्रतिम और अनंत है अनहद और विराट है |

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