स्वच्छंदतावाद : तार्किकता के विरुद्ध भाव का विद्रोह
कार्ल मार्क्स के 'वर्ग संघर्ष' के सिद्धांत के आधार पर हम स्वच्छंदतावाद को समझ सकते हैं| जिस तरह समाज में सदैव से दो वर्ग रहे हैं और उनमें संघर्ष जारी रहा है उसी तरह साहित्य में भी दो रूप रहे हैं, जिनमें हमेशा संघर्ष होते रहा है| इस संघर्ष का इतिहास काफी पुराना है कभी एक रूप दूसरे रूप पर हावी हो जाता है तो कभी दूसरा रूप पहले रूप पर| आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक का संपूर्ण साहित्य इसी रूप परिवर्तन का दस्तावेज है|
हम सभी जानते हैं कि साहित्य हमेशा से दो रूपों में उभरकर समाज के सामने आया है पहला है,शिष्ट साहित्य और दूसरा है लोक साहित्य|
शिष्ट साहित्य से तात्पर्य काव्यशास्त्रीय परिपाटी से बंधे उस साहित्य विशेष से है, जिसमें रस, छंद और अलंकारों के जमावड़े के साथ-साथ क्लिष्ट शब्दों और विशिष्ट विषय वस्तु का प्राचुर्य होता है|
वंही ,लोक साहित्य से तात्पर्य साहित्य के उस रूप से है,जिसका सीधा - सीधा जुड़ाव आम जनता से होता है अर्थात इसमें आम जनता से प्रचलित लोक कथाओं और मान्यताओं को आश्रय मिलता है तथा शब्द भी आम बोलचाल की भाषा के होते हैं, अर्थात कहने का आशय यह है कि ये भाव प्रबल रचनाएं होती हैं,जो किसी भी विशिष्ट परिपाटी के अनुपालन के लिए बाध्य नहीं होती हैं |
स्वच्छन्दतावाद
यूरोपीय रोमांटिसिजम का हीं भारतीय रूप है स्वच्छंदतावाद|
अतः भारतीय स्वच्छंदतावाद को समझने के लिए हमें सबसे पहले यूरोपीय रोमांटिसिज्म को समझना होगा|
आचार्य शुक्ल के शब्दों में कहे तो किसी भी देश का साहित्य वहां की जनता की चित्त वृत्तियों का संचित प्रतिबिंब होता है.....
अतः ये तय हो जाता है कि परिस्थितियों का परिवर्तन ही साहित्यिक रूप परिवर्तन का प्रमुख कारण है|
इस दृष्टि से हमें सबसे पहले यूरोपीय संस्कृति सभ्यता और तत्कालीन परिवेश की जानकारी हासिल करनी होगी जिसमें यूरोपीय रोमांटिसिजम का बीज अंकुरित पुष्पीत और पल्लवित हुआ| जब हम यूरोप के इतिहास पर नजर दौड़ाते हैं तो देखते हैं कि तत्कालीन समय में यूरोप में अभिजात्यवादी साहित्य का बोलबाला था |
अर्थात तत्कालीन साहित्य काव्य रूढ़ियों , काव्य शास्त्रीय परंपराओं और नैतिक नियमों और आदर्श के बंधन से पूरी तरह बंधा हुआ था|
स्पष्ट शब्दों में कहें तो तत्कालीन काव्य या साहित्य बिल्कुल वैसा ही था जैसा महान दार्शनिक प्लेटो ने चाहा था|
हम सभी जानते हैं कि प्लेटों काव्य के महत्व को उसी सीमा तक स्वीकार करता है जहां तक वह आदर्श राज्य के आदर्श नागरिकों के निर्माण में सहायक हो |
लेकिन काव्य विरोधी होने के बावजूद भी प्लेटो ने मानवीयता से भरे और नैतिक मूल्यों से आप्लावित काव्य की सराहना की है |
इस तरह तत्कालीन अभिजात्यवादी साहित्य जो था उसका पूरा स्वरूप प्लेटो की इसी प्रेरणा से अनुप्राणीत था|
ऐसे में साहित्य पर बंदिशों का एक पहाड़ सा टूट पड़ा था | कवि और रचनाकार बनी बनाई लीक पर चलने को बाध्य थे | उनका मन इन बंदिशों को तोड़ने की छटपटाहट में था, अतः फ्रांस की क्रांति की ज्वाला को धधकाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह इन छटपटाहटो ने भी किया और देखते ही देखते सामाजिक स्तर पर होने वाली यह क्रांति साहित्यिक क्रांति के रूप में बदल गई |रूसो की यह घोषणा की "मानव जन्म से स्वतंत्र प्राणी है जो हर जगह श्रृंखलाओं में जकड़ा है" नें साहित्य और समाज को नई दिशा और दशा प्रदान की |
इस क्रांति के बौद्धिक नायक ज्यां -जॉक रूसो को यूरोपिय रोमांटिसिज्म की शुरुआत का श्रेय दिया जाता है|
इसे इतिहासकारों नें नियमों और रूढ़ियों के खिलाफ व्यक्ति का विद्रोह नाम दियाा है|
निश्चय यह बंधन मुक्ति का आंदोलन रहा है जिसे विक्टर हयुगो नें साहित्य में उदारतावाद नाम दिया है तथा फ्रेडिक शलेगल नें यूरोपीय रोमांटिसीज्म |
किट्स,विलियम वर्ड्सवर्थ, शैली, कॉलरीज केेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे साहित्य में यूरोपीय रोमांटिसिजम पूर्णतः दृष्टिगोचर है |
ऐसा नहीं है कि केवल काव्य में ही इस विधा का प्रयोग हुआ है अपितु उपन्यास,ललित निबंध आदि भी इससे अछूते नहीं रहेेे हैं| वाल्टर स्कॉट का उपन्यास इसका सबसे बड़ा उदाहरण है| अंग्रेजी साहित्य में वर्ड्सवर्थ की रचना लिरिकल बैलेड्स के प्रकाशन के साथ यूरोपिय रोमांटिसिजम की नीव पड़ी |
भारतीय स्वच्छंदतावाद
जैसा कि हम जानते हैं पंडितों की बंधी प्रणाली पर चलने वाली काव्यधारा के साथ-साथ सामान्य अपढ़ जनता के बीच एक स्वच्छन्द और प्राकृतिक भावधारा भी गीतो के रूप में चलती रहती है| ठीक उसी प्रकार जैसे पंडितों की साहित्यिक भाषा के साथ-साथ लोक भाषा की धारा भी प्रवाहित होती रहती है| हिंदी साहित्य के इतिहास पर हम दृष्टिपात करें तो देखते हैं कि रीतिकाल मे जो अलंकारवादी प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है, रसों का वैविध्य नजर आता है या फिर छंदों का बहुतायत प्रयोग वह कहीं ना कहीं आधुनिक काल में भी पूर्णता समाप्त न हो सका था, भारतेंदु काल मैं गद्य की भाषा तो हिंदी अवश्य बनी किन्तु पद्य में ब्रजभाषा का प्रभाव पहले जैसा ही बना रहा| वास्तविकता तो यह थी कि अभी भी रचनाएं बंधी बँधाई परिपाटी पर ही रची जा रही थी, छंदो,रसो,अलंकारों का खूब प्रयोग हो रहा था काव्यगत विषयों का भी उतना अधिक विस्तार नहीं हुआ था| ऐसे में कवि मन स्वच्छंदता की छटपटाहट और व्यग्रता के उद्योग में लीन था | और इस उद्योग के परिणाम स्वरूप हीं स्वच्छंदतावादी साहित्य का जन्म हुआ |
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने स्वच्छंदतावाद के उद्घोष का श्रेय श्रीधर पाठक जी को देते हुए कहा है-
" द्विवेदी युगीन साहित्य में श्रीधर पाठक के नेतृत्व में एक विशेष धारा दिखाई देती है जिसे प्रवृत्तियों के आधार पर स्वच्छंदतावाद कहा जा सकता है|"
पंडित श्रीधर पाठक का एकांतवासी योगी
साहित्यिक स्वच्छंदतावाद का प्रथम उद्घोष है |इस रचना की केवल भाषा ही नहीं अपितु इस की सार्वभौमिक मार्मिकता भी ध्यान देने योग्य है| किसी के प्रेम में योगी होना और निर्जन क्षेत्र में कुटी बनाकर रहना एक ऐसी भावना है,जो तत्कालीन पंडितों की बंधी हुई रूढ़ी से बाहर निकलकर अनुभूति के स्वतंत्र क्षेत्र में आने की प्रवृत्ति का द्योतक है|
इस तरह की स्वच्छंदता का आभास पहले पहल पंडित श्रीधर पाठक जी ने ही दीया| ना केवल प्रेम अपितु प्रकृति के अनेक रूपों,मानव जीवन की अनेक समस्याओं को भी इन्होंने जीवंत रूप दिया |इसके बाद तो हिंदी साहित्य जगत में अनेक कवि और साहित्यकार आए जिन्होंने अपनी रचनाओं में स्वच्छंदतावाद प्रवृत्ति को अपनाया| इन रचनाकारों में हरिवंश राय बच्चन, रामेश्वर शुक्ल अंचल, नरेंद्र शर्मा जी का नाम विशेेेेष उल्लेखनीय है|
किंतु खेद का विषय यह है कि शुरुआत के कुछ दिनों बाद हीं इस स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति की आंच थोड़ी मद्धिम पड़ गई | इसका कारण था पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वान का संस्कृत काव्य संस्कारों के प्रति मोह और रविंद्र नाथ टैगोर जी की शैली से प्रभावित हिंदी साहित्यकारों का बांग्ला साहित्य के प्रति रुझान | लेकिन यह बस कुछ दिनों का व्यवधान था |अब स्वच्छंदतावाद अपने प्रखर तम रूप में उभर कर सामने आया और इसका नामकरण हुआ छायावाद| छायावादी कवियों में जयशंकर प्रसाद जी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी महादेवी वर्मा जी और सुमित्रानंदन पंत जी का विशेष स्थान है |
कुछ आलोचक छायावाद और स्वच्छंदतावाद को अलग मानते हैं लेकिन कुछ आलोचकों ने दोनों को एक दूसरे का पूरक माना है,हम दोनों वादों की समता और असमानता को निम्न रूपों में देख सकते हैं-
समताएं -
1 स्व की अभिव्यक्ति
2 प्रकृति चित्रण
3 विद्रोह की प्रवृत्ति
4 नवीन दृष्टिकोण
5 कल्पना की प्रधानता
6 कृत्रिमता से मुक्ति
7 सौंदर्य के प्रति मोह
8 व्यक्तिकता
आसमानताएं -
1 स्वच्छंदतावाद जहां यूरोपीय रोमांटिसिजम का अनुकरण है वही छायावाद भारतीय परिवेश में पला बड़ा भारतीय साहित्य का अपना वाद है|
2 स्वच्छंदतावाद से तात्पर्य रोमांटिसिज्म से है जबकि छायावाद से तात्पर्य मिस्टीसिज्म से है|
3 स्वच्छंदतावाद अभिव्यक्ति के संबंध में हर तरह के बंधन तोड़ने का पक्ष पाती है जबकि छायावाद ऐसा नहीं करता|
4 स्वच्छंदतावाद पूर्णता आत्म केंद्रित होता है जबकि छायावाद मानवतावाद का पोषक होता है|
निष्कर्ष रूप में हम बस यही कह सकते हैं कि स्वच्छंद प्रवृत्तियों से अनुप्राणित वाद हीं वास्तव में स्वच्छंदतावाद है जिसने काव्य ही नहीं साहित्य की अन्य विधाओं को भी एक नया आयाम प्रदान किया| काव्य को छंदों की जकड़न से मुक्त कर उसे मुक्त छंद जैसी विशिष्टता से नवाजा तो वही मानवतावाद का बिगुल भी फूंका|
यह सब विशिष्टतायें स्वच्छन्दतावाद को सर्वश्रेष्ठ की उपमा से नवाजती है लेकिन बड़े ही दुख की बात यह है कि यह विशेषताये हीं इसके अवसान का कारण बनी |कल्पना, रहस्यतमाकता, व्यक्तिकता की अतिशयोक्ति इस पर भारी पड़ी और तत्कालीन समय में यह वाद धीरे-धीरे लुप्त होने लगा और एक नए वाद प्रगतिवाद का अभ्युदय हुआ |
किंतु यह इसकी विशिष्टता और सर्वभौंमिक्ता हीं है की आज भी यह यह हिंदी साहित्य जगत में अपनी पकड़ बनाये हुएँ है और भविष्य में भी इसके निश्चित आसार नज़र आ रहें |
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