केशवदास की रामचंद्रिका
1555 ईसवी में ओरछा में जन्मे केशवदास हिंदी साहित्य जगत की एक विशेष ख्याति है| रीति काव्य के युग निर्माता होने के कारण इनका साहित्य जगत में ऐतिहासिक महत्व है,यही कारण है कि इनकी तुलना महानतम साहित्यकारों से की जाती रही है|
अर्थात,स्पष्ट शब्दों में हम कहें तो हिंदी साहित्य में जो स्थान कबीर का निर्गुण परंपरा में,सूर का कृष्ण काव्य परंपरा में,तुलसी का राम काव्य परंपरा में है वही स्थान केशव का रीति परंपरा में है|
तभी तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने लिखा है-
' सूर सूर तुलसी शशि उडगन केशवदास
अब के कवि खद्योत सम,जहं -तहं करत प्रकाश '
आचार्य केशवदास विद्वानों के बीच के विवादास्पद विषय रहे हैं, किसी को इनके युग को लेकर मतभेद है तो किसी को इनके आचार्यत्व और कवित्व को लेकर, कोई इन्हें रीति काव्य परंपरा का प्रवर्तक स्वीकार करता है तो कोई अस्वीकार|
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि
रीतिकाल के प्रवर्तक आचायों में एक विवादास्पद नाम है केशवदास जी का |आचार्य शुक्ल जी ने इन्हें रीतिकाल का प्रथम आचार्य तो माना है किंतु इन्हें रीतिकालीन परंपरा के प्रवर्तक के रूप में स्वीकार नहीं किया है| उन्होंने रीति प्रवृत्ति के प्रवर्तन का श्रेय चिंतामणि को दिया है| इसका यह मतलब कतई नहीं है कि आचार्य केशवदास का हिंदी साहित्य जगत में कोई महत्व नहीं है यह उनकी ख्याति का ही परिणाम है की उन्होंने न केवल रीतिकाल में अपितु पूरे रीति काव्य परंपरा में एक विशेष स्थान प्राप्त किया है|
ये ओरछा नरेश रामसिंह के भाई इंद्र सिंह के दरबारी कवि थे| संस्कृत के प्रकाण्ड पंडित होने के बावजूद इन्होंने अपनी रचनाओं में ब्रजभाषा का प्रयोग किया हैं साथ हीं साथ मुहावरो और अपभ्रन्स के शब्दों का भी बाहुल्य है ,बुंदेलखंडी शब्दों का भी प्रयोग देखने को मिलता है|
यूं तो इन्होंने कई ग्रंथों की रचना की है किंतु इनके आचार्यत्व का प्रमुख आधार कवि प्रिया,रसिकप्रिया और छंद माला है|
इसके अलावा इन्होंने विज्ञान गीता जो कि एक आध्यात्मिक ग्रंथ है जिसे 'प्रबोध चंद्रोदय' के तर्ज पर लिखा गया है, जहांगीर जस चंद्रिका (प्रबंधनात्मक रचना )और
वीर सिंह देव चरित ( प्रबंधनात्मक रचना ), रतनबावनी तथा रामचंन्द्रिका की भी रचना की है |
रामचंद्रिका
1601 इसवी में रचित रामचंद्रिका केशवदास की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है| चुकी इस रचना को लेकर उनके ऊपर कई आरोप लगे हैं किसी ने उन्हें हृदय हीन कवि कहां है तो किसी ने कठिन काव्य का प्रेत कहकर पुकारा है, लेकिन फिर भी इस रचना का साहित्य और इतिहास की दृष्टि से अपना एक विशेष महत्व रहा है |इसमें केशव दास जी ने 39 अध्यायों में राम कथा का वर्णन किया है| पहले अध्याय में ईश्वरीय स्तुति के साथ प्रारंभ हुई यह कृति उनचालीसवे अध्याय में रामचंद्रिका के महात्मय के साथ समाप्त होती है|
श्री राम स्तुति पर आधारित यह ग्रंथ मूलतः अपने पूर्ववर्ती ग्रंथों का अनुसरण करता है लेकिन उस तरह की भक्ति की विराट चेतना से यह आप्लावित नहीं हो पाया है | कहने का तात्पर्य यह है कि केशव दास जी ने बाल्मीकि रामायण, हनुमन्नाटक, प्रसन्नराघव का सहारा ले 'रामचंद्रिका' की रचना अवश्य की है, लेकिन उस
प्रकार की भक्ति भावना को दर्शाने में असफल हुए हैं|
इस ग्रंथ की सबसे अनोखी बात तो यह है कि इसमें पूर्णतः रामकथा का ही वर्णन है जो केशवदास का श्री राम के प्रति श्रद्धा का परिचायक है किंतु भक्ति का जो निर्मल भाव अपने इष्ट के प्रति होना चाहिए उसका अभाव है| ऐसा लगता है कि इस पुस्तक की रचना का उद्देश्य कवि द्वारा श्री राम के चरित्र का वर्णन करना नहीं है अपितु उससे कहीं अधिक अपने आचार्यत्व और कवित्व को प्रदर्शित करना है इसी कारण कई विद्वानों ने रामचंद्रिका को विवादों के घेरे में रखते हुए केशवदास पर उंगली उठाई है, उनका मानना है कि उक्त रचना में एक भक्त के निश्चल प्रेम भावना की जगह एक कवि के पांडित्य प्रदर्शन, छंदों के ज्ञान,अलंकारवादिता का बोझ अधिक है |
आखिर ऐसा क्यों हुआ?
इस प्रश्न के उत्तर के लिए जब हम उनके साहित्य का अवलोकन करते हैं तो दरबारी परिवेश का दबाव दृष्टिगोचर होता है| जैसा कि हम सब जानते हैं कि ' रीतिकाल ' अपने आप में दरबारी संस्कृति और भोग विलास का मूर्त रूप रहा है |इस युग में साहित्य पूरी तरह से दरबार की गलियारों में सिमट कर रह गया था |कवियों में आचार्य बनने की होड़ लगी हुई थी, उसी कवि को राजाश्रय प्राप्त होता था जो कवि कर्म के साथ-साथ आचार्य कर्म पर भी अपनी बेजोड़ पकड़ रखता था|
ऐसे में केशव दास जी की उक्त रचना 'रामचंद्रिका' में एक भक्त से अधिक उनके कवि कर्म और आचार्य कर्म निर्वाहक की जो छवि उभरी है,उसका उभारना सामान्य हीं है| यही कारण है कि उनका मन मार्मिक प्रसंगों से कहीं अधिक युद्ध,सेना और भोग विलासिता के चित्रण में रमा है| आचार्य शुक्ल के शब्दों में कहें तो " केशव केवल उक्ति वैचित्र और शब्द क्रीड़ा के प्रेमी थे |जीवन के नाना गंभीर और मार्मिक पक्षों पर उनकी दृष्टि नहीं थी| प्रबंध पटुता उनमें कुछ भी ना थी|"
यह तो रही रामचंद्रिका के भाव पक्ष की बात जब हम उक्त ग्रंथ के कला पक्ष की बात करते हैं तो देखते हैं कि रचनाकार के कलात्मक प्रयोग कहीं-कहीं अद्भुत हुए हैं, संवाद योजना इसका सबसेेेेे बड़ा उदाहरण है |
तभी तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने कहा है " इन संवादों में पात्रों के अनुकूल क्रोध, उत्साह आदि की व्यंजना भी सुंदर है तथा वाकपटुता और राजनीति के दांव पेच का आभास भी प्रभावपूर्ण है|"
छंद का भी सुंदर प्रयोग हुआ है, तभी तो रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने अपने ग्रंथ 'हिंदी भाषा और संवेदना का विकास' में कहा है " रामचंद्रिका तो छंदों का अजायबघर है"
अर्थात कहने का आशय यह है कि रामचंद्रिका में हर तरह के छंद मौजूद है ऐसा लगता है मानो आदिकालीन रासो काव्य परंपरा की परिपाटी को केशव दास जी ने दोहराया है|
निष्कर्ष रूप में में हम बस यही कह सकते हैं कि भले रामचंद्रिका में कलात्मकता अधिक हावी है,मार्मिक प्रसंगों की अनदेखी की गई है, क्लिष्ट शब्दावली का प्रयोग है और अलंकार प्रदर्शन की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है किंतु फिर भी आचार्य केशवदास की उक्त रचना हिंदी साहित्य जगत में एक विशिष्ट स्थान रखती है डॉ नगेंद्र केेेेेे शब्दों में कहे तो " रामचंद्रिका केशव का असाधारण महाकाव्य है जिसमें परंपरा पालन के स्थान पर वैसिष्टय सन्निवेश का ध्यान अधिक रखा गया|"
दरअसल केशव ने अपने परवर्ती कवियों के लिए अपनी रचनाओं द्वारा एक नया मार्ग खोला है जिसके कारण हिंदी साहित्य को अनेकों ऐसी रचनाएं मिली है जो काव्य कला के उच्चतम सोपान को दर्शाती हैं, कलात्मकता का यही उच्चतम सोपान केशवदास को हिंदी साहित्य जगत में अमर करता है, केशवदास की इसी विशिष्टता को रेखांकित करते हुए सच्चिदानंद नें लिखा है " बिहारी को एक ट्रेडीशन बना बनाया मिला |केशव ने स्वयं ट्रेडीशन बनाया |अगर बिहारी के फलों की दुकान है जहां आपको मेवा तुरंत मिलता है तो केशव वह माली है जिसने पौधे बोये थे|"
Comments
Post a Comment