संस्कार: एक अंतरद्वन्द
" किसी नियम कानून या परंपरा के तहत जब किसी व्यक्ति को उसकी जाति, धर्म,कुल, रंग नस्ल, परिवार,भाषा,प्रांत विशेष में जन्म के आधार पर हीं किसी कार्य के लिए योग्य और अयोग्य मान लिया जाए,ब्राह्मणवाद कहलाता है|"
21वीं सदी के भारत में आज 'ब्राह्मणवाद' सबसे ज्वलंत और चर्चित मुद्दा है |दरअसल,ब्राह्मणवाद ही जातिवाद है |आज के समाज में सबसे अधिक हो हल्ला अगर किसी मुद्दे को लेकर हो रहा है, देश,समाज, चौराहे और नुक्कड़ की हर गली में यदि कोई विषय बहस का केंद्र है तो वह है,ब्राह्मणवाद|
ब्राह्मणवाद से तात्पर्य किसी जाति विशेष (ब्राह्मण) का किसी अन्य जाति विशेष (शूद्र)पर किए गए अत्याचार या दुर्व्यवहार से नहीं है |ब्राह्मणवाद तो हर जाति और हर स्तर पर विद्यमान है इसके लिए केवल किसी एक ही जाति को जिम्मेदार ठहराना कतई सही नहीं है | आज भारत की हर जाति में अस्पृश्यता का यह कैक्टस पल रहा है|
लेकिन जब हम भारतीय इतिहास और साहित्य या फिर भारतीय सिनेमा की बात करते हैं तो देखते हैं कि ब्राह्मणवाद का सीधा और एकमात्र संबंध ब्राह्मण जाति के साथ जोड़ा जाता है |पूरे ब्राह्मण समाज को खलनायक के रूप में चित्रित कर उनको जमकर लताड़ा जाता है|
कभी मनुस्मृति को आधार बनाकर तो कभी भारतीय संविधान को आड़ बनाकर ब्राह्मणों की जमकर आलोचना की जाती है| भारतीय समाज और संस्कृति में उनके योगदानो को भूला कर उन्हें जातिवाद के पुरोधा और ओछी मानसिकता के परिचायक के रूप में चित्रित किया जाता है|
यह सत्य है कि कुछ ब्राह्मणों ने धर्म की आड़ में अस्पृश्यता और जातिवाद का घिनौना खेल खेला और जनता को प्रताड़ित किया उनका शोषण किया लेकिन यह दुष्यकृत केवल कुछ ब्राह्मणों ने किया,पूरे ब्राह्मण समाज को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना और आज भी उन्हें इस बात के लिए जलील करना सरासर नाइंसाफी है| इसी ब्राह्मण समाज में ईश्वर चंद्र विद्यासागर,चंद्रशेखर आजाद,स्वामी दयानंद सरस्वती,राजा राममोहन राय जैसे कितनें ही समाज सुधारक और पर हितकारी महापुरुष हुए जिन्होंने समाज को नई दिशा और दशा दी|
जो लोग ब्राह्मणवाद के नाम पर पूरे ब्राह्मण समाज को बदनाम करते हैं उनके सामने बस एक ही प्रश्न बनता है, कि क्या एक ही कसौटी पर सभी को तौला जाना सही है?
उन्हें यह समझना होगा कि जिस तरह पांचों उंगलियां बराबर नहीं होती उसी तरह हर ब्राम्हण ब्राम्हणवादी नहीं होता|
आज हमारी चर्चा का विषय है यू.आर.अनंतमूर्ति द्वारा रचित कन्नड़ उपन्यास संस्कार|
उपर्युक्त उपन्यास में अप्रत्यक्ष रूप से ब्राह्मणवाद और अस्पृश्यता पर तीखा व्यंग है|
1965 ईस्वी में प्रकाशित यह उपन्यास युगांतरकारी की संज्ञा से अभिहित है| यूं तो भारतीय साहित्य में भिन्न-भिन्न भाषाओं में ब्राह्मणों पर भिन्न-भिन्न विधाओं में भिन्न-भिन्न रचनाएं की गई लेकिन अनन्तमूर्ति जी की यह रचना उन सभी रचनाओं से भिन्न है इसकी भिन्नता का सबसे बड़ा कारण यह है कि उक्त उपन्यास में जन्म और जाति से ब्राह्मण दो पुरुषों के माध्यम से ब्राह्मण समाज के दो अलग-अलग रूप दो अलग-अलग सोच को रूपायीत किया गया है|
उपर्युक्त उपन्यास में ब्राह्मण श्रेष्ठ प्राणेशाचार्य और ब्राह्मणवादी रूढ़ियों का आजन्म विद्रोही नारणप्पा के द्वारा एक ही समाज की दो विपरीत मानसिकता को चित्रित करने का सफल प्रयास किया गया है | नारणप्पा की मृत्यु से शुरू हुआ यह उपन्यास ब्राम्हण समाज की पोल खोलते हुए उनकी आडंबरवादिता और हठधर्मिता तथा लोभ और लोलुपता को दर्शाता है|
नारणप्पा पूर्ण रूप से ब्राह्मण समाज में फैली मान्यताओं,विश्वासगत रूढ़ियों, परंपराओं का विरोधी था| उसने उसे कभी नहीं माना था| वह भौतिक जीवन पर विश्वास करता था और आजीवन आध्यात्म से दूर भौतिकता मे लिप्त रहा |चंद्री नाम की एक दलित स्त्री उसकी रखैल भी थी| अर्थात कहने का आशय यह है कि नारणप्पा ने अपने जीवन में जो चाहा वही किया वह किसी बंधन में बंध कर नहीं रहा और ना ही किसी परंपरा या रूढ़ीगत विश्वास को अपने ऊपर हावी होने दिया| प्राणेशाचार्य की लाख कोशिशों के बाद भी नारणप्पा ने कभी धर्म के बंधन को अपने ऊपर स्वीकार नहीं किया वह आजीवन अपनी मन की करता रहा| समाज में कुछ उसके विरोधी थे लेकिन उससे कहीं अधिक उसके प्रशंसक |
उपन्यास की ट्रेजडी उपन्यास के आरंभ में ही प्रारंभ हो जाती है जब नारणप्पा के अंतिम संस्कार की बात उठती है.. और प्राणेशाचार्य के अनुरोध करने पर भी गड़ूणाचार्य और लक्ष्मणाचार्य नारणप्पा का अंतिम संस्कार करने से मना कर देते हैं लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि चंद्री के सोने के गहने देने की बात सुनकर इन्हीं दो महापुरुषों में नारणप्पा के अंतिम संस्कार के लिए होड़ लग जाती है| प्राणेशाचार्य जो कि एक सिद्ध महापुरुष, परम तपस्वी और परम ज्ञानी महा पंडित के रूप में उभरकर पूरे उपन्यास में छाए रहते हैं वह भी अपने मन की दमित वासना और अंतर्द्वंद से मुक्ति नहीं पा पातें और चंद्री और पद्मावती जैसी स्त्रियों के साथ संबंध स्थापित कर लेते हैं, जो उनके धर्म और समाज दोनों के विपरीत है, यही कारण रहता है कि वें आचार्य पद के त्याग की बात सोचते हैं|
यहां लेखक ने कई तरह की मानसिकताओं को दर्शाया है.. जो मूलतः एक ही वर्ग से संबंधित है| अपने उपन्यास में, उपन्यासकार ने विपरीत मनः स्थितियों का चित्रण कर,व्यापक स्तर पर मनुष्य के अंतर्द्वंद को संस्कार और विकार के रूप में परिभाषित करने का सार्थक प्रयास किया है और यह बता दिया है कि जन्म और जाति किसी की मानसिकता के आधार नहीं होते अर्थात नारणप्पा ब्राह्मण समाज में भी मिल सकते हैं और प्राणेशाचार्य दलित समाज में भी|
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