सेवासदन:स्त्री और स्त्रीत्व की लड़ाई
हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार,उपन्यासकार और कथाकार मुंशी प्रेमचंद जी का हिंदी साहित्य जगत में मूर्धन्य स्थान है|
अपनी रचनाओं के माध्यम से इन्होंने लगभग समाज के हर तबके को उजागर किया है तथा उनके दुखों,कष्टों और मनोभावों को विस्तृत फलक पर प्रस्तुत करने का सराहनीय कार्य भी किया है| मूलतः मुंशी प्रेमचंद जी दलितों, किसानों और स्त्रियों के लेखक के रूप में विख्यात है | इन्होंने जितना कुछ दलित शोषण, किसान दुर्दशा तथा स्त्री की पीड़ा पर लिखा, उतना शायद ही किसी अन्य लेखक ने लिखा होगा|
यह इनकी लेखनी और इनके लेखों की विषयवस्तु का ही कमाल है कि आज ये हिंदी साहित्य जगत के बहुचर्चित साहित्यकार और कथाकार के रूप में विख्यात है|
इन्होंने अनेक कहानियों और उपन्यासों की रचना की है जो आज भी अपनी प्रासंगिकता के कारण जनमानस में चर्चित है इनकी प्रमुख कहानियों में बड़े घर की बेटी,सौत,मंदिर और मस्जिद,प्रायश्चित ,आभूषण, नमक का दरोगा
आदि प्रमुख है तथा उपन्यासों में गबन, निर्मला,प्रेमाश्रम,सेवासदन आदि प्रमुख है|
बात अगर हम प्रेमचंद जी के उपन्यास 'सेवासदन' की करे तो यह उपन्यास हमें अपने युग का प्रतिबिंब ही नजर आएगा|, क्योंकि सामाजिक विकृतियों को प्रस्तुत करता यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक और समकालीन है जितना प्रेमचंद युग में था| चुकी सेवासदन में लेखक ने ढोंग,पाखंड.दहेज प्रथा चरित्र हीनता, रिश्वतखोरी,बेमेल विवाह जैसी कई समस्याओं को उकेरा है,लेकिन जो मूल समस्या रहीं हैं वह हैं 'स्त्री समस्या'|
उक्त उपन्यास में प्रेमचंद जी ने स्त्री की समस्या को समाज के माध्यम से हर स्तर पर दर्शाने का सफल प्रयास किया है |
सुमन,उपन्यास की नायिका है जिस की लड़ाई इस सभ्य कहे जाने वाले समाज से है,वह समाज की नजरों में चरित्रहीन,कुलटा और न जाने क्या-क्या है क्योंकि उसने अपने पति का घर छोड़ कोठे का सहारा लिया हैं | यह अलग बात है कि निर्दोष होने पर भी उसके पति ने उस पर चरित्रहीनता का धब्बा लगा उसे घर से बाहर निकाला |
सुमन के साथ इस समाज में ऐसा होना स्वभाविक है क्योंकि इस पितृसत्तात्मक समाज ने सदैव से पत्नियों को ही गलत माना है पति तो परमेश्वर होते हैं ना तो भला वे कभी गलत कैसे हो सकते हैं!
भारतीय समाज में शुरू से ही स्त्री को दबाया जाता है चाहे उसका खुद का परिवार हो या फिर उसका ससुराल हर जगह वह दबी और सहमी सी रहती है,,बचपन से ही उसे कम बोलने की शिक्षा दी जाती है, निगाहें नीचे करके बात करने का पाठ पढ़ाया जाता है, उसके विद्रोही स्वर को दबा दिया जाता है और उसे इंसान की शक्ल में मिट्टी की मूरत बना दिया जाता हैं जिसके अपने भाव,विचार होते तो हैं, पर मरे हुएँ.....
सुमन का चरित्र,भारतीय स्त्री के इसी रूप को चित्रित करता, एक हृदय विदारक चरित्र है | बेशक सुमन महत्वकांक्षी महिला रहती है,लेकिन बेमेल विवाह होने के बाद भी वह गजाधर पांडे के साथ रहने की हर मुमकिन कोशिश करती है, लेकिन गजाधर पांडे का शक उसे कोठे तक पहुंचा देता है| और सुमन वेश्या बन जाती है|
सुमन का चरित्र भारतीय स्त्री के रूप में सबसे ज्यादा तब मुखरित होता है जब वह कोठे से 'सेवासदन' तक का सफर तय करती है, उसे समाज वाले ताने देतें हैं "सात घाट का पानी पी आज नेम वाली बनी है, देवता की मूरत टूट कर फिर नहीं जुड़ती" विधवा आश्रम में भी उस पर कीचड़ उछाला जाता है, यहां तक कि उसकी अपनी बहन शांता और कभी सुमन पर जान छिड़कने वाला सदन भी उससे दूर भागने लगते हैं|
सुमन हर संभव कोशिश करती है खुद को सुमन वाली जिंदगी फिर से देने की लेकिन भूत की उसकी एक गलती उसके वर्तमान और भविष्य दोनों को निगल लेती है, इस समाज को कहां मंजूर था कि सुमनबाई, सुमन के रूप में अपनी बाकी की जिंदगी बिताये | यहां घर का चौखट लाँघने से स्त्री कुलटा और देर रात घर आने से वह अपवित्र हो जाती है तो ऐसे में सुमनबाई का सुमन बनना तो नामुमकिन था |उसे यह समाज तो कभी नहीं स्वीकार करता, उपन्यास के अंत तक नहीं लेकिन सुमन खुद को स्वीकार करना सीख जाती है और यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशिष्टता होती है|
सेवासदन आश्रम के माध्यम से वह स्त्री समाज के लिए कार्य करने लगती है और समाज की ओछी मानसिकता से कई सुमन को सुमनबाई बनने से बचा,स्त्री और स्त्रीत्व की रक्षा करती हैं |
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