नक्सलवाद

समरस समाज की स्थापना के उद्देश्य से 1967 में जन्मा नक्सलवादी आंदोलन आज एक भीषण समस्या का रूप ले चुका है | अन्याय, शोषण और उत्पीड़न के विरोध में पनपे इस आंदोलन ने अन्याय और शोषण को हीं अपना अस्त्र बना लिया है | आज यह आंदोलन, आंदोलन ना रहकर आतंकवाद का पर्याय बन गया है |
    ज़ब इतिहास के पन्नो को हम पलटते है तो देखते हैं कि सृष्टि कि उत्तपति के साथ हीं बुर्जआ और सर्वहारा का संघर्ष प्रारम्भ हो गया था, और यह संघर्ष निरंतर चलता रहा दरअसल नक्सलवाद इसी संघर्ष का जीता जागता स्वरुप है |

नक्सलवादी से तात्पर्य माओ के विचारों में आस्था रखने वाले कुछ लोगो के समूह से है जो अन्याय, गरीबी, शोषण, उत्पीड़न जैसी सामाजिक समस्याओं से निजात पाने के लिए सरकार और प्रसाशन से संघर्ष करते है.... लेकिन आज इनका यह संघर्ष अपने परवर्ती संघर्षो से अलग रूप ले चुका है....इनका  यह संघर्ष  हिंसात्माक और आक्रमक रूप ले चुका है ,  अपनी मांग मनवाने के लिए ये स्थानीय नागरिकों को प्रताड़ित करने के साथ साथ उन्हें बंधक बनाने तक से नहीं चूक रहें | जबरन  मांग पूरी  करवाने के लिए  ये गुरील्ला युद्ध पद्धति का  भी प्रयोग  कर रहें  हैं |

   अभी हाल हीं में छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले में हमारे कई जवान शहीद हो गयें, ऐसा पहले भी हो चुका हैं | इन हमलों से स्पष्ट है कि नक्सलवादी अपने मूल उद्देश्य से भटक कर उनलोगो को निशाना बनाने लगे हैँ, जो कहीं ना कहीं से सरकार और प्रसाशन से जुड़े हुए हैँ |

   आज देश के आठ बड़े बड़े राज्यों बिहार, बंगाल आदि में नक्सलवाद सर्वाधिक प्रभाव में उभर रहा हैँ | जिसके तहत देश में आंतरिक अशांति, जान माल कि हानि, वर्गीय भेद भाव के बढ़ने आदि का संकट मंडराने लगा हैँ |
     नक्सलवाद  के बढ़ते प्रभाव  को देखते हुए सरकार ने इस समस्या के समाधान  के लिए कई  कदम उठाये हैँ | यह कदम दंडात्मक से लेकर  सुधारात्मक तक हैँ लेकिन स्थिति अभी कुछ खाश बदली नहीं हैँ और शायद इस तरह के नियमों द्वारा यह स्थिती बदले भी नहीं क्योंकि नक्सलवाद तब तक समाप्त ना होगा ज़ब तक सुधार ना होगा अतः आवश्यकता हैँ ज़मीनी सुधार की क्योंकि गरीबी, बेकारी प्रसाशनिक भ्र्ष्टाचार का अंत हीं नक्सलवाद का अंत हैँ | 

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