जातिवाद :एक कलंक
जात ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ग्यान,
मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान|
कबीर के उपर्युक्त दोहे में इंसान को सर्वोपरि दर्शाते हुए, ग्यान के महत्व को प्रकाशित करने का सार्थक प्रयत्न किया गया है जो भारत और भारतीय संस्कृति का द्योतक है | भारतीय इतिहास में मानवीयता अपने मूर्त रूप में नज़र आती है वंहा जातियता का दंश नहीं है, वेदों में वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म को माना गया है, पुराणों और महाकाव्यो में भी अशप्रिष्यता का वह रूप नहीं दीखता जो आज के समाज में व्याप्त है.. चाहे हम राम सबरी प्रसंग की बात करें या फिर कृष्ण और उनके सखागण (ग्वालों )की कहीं भी जातिगत आधार पर भेद भाव का चित्रण नहीं मिलता | लेकिन आज हम अपने पुरोंधाओं द्वारा दी हुई सिख को नज़रअंदाज़ कर खुद की एक अलग दुनिया बना लिए हैं जंहा जन्म के आधार पर जाति का ठप्पा लगता है और व्यक्ति का आंकलन या तो उसकी आर्थिक स्थिति के आधार पर किया जाता है या उसकी जाति से | दरअसल छुआछुत और भेद भाव का यह सिलसिला 6 वीं शताब्दी के आस पास से शुरु हुआ और तब से लेकर आज तक यह बना हीं हुआ है... आज झारखण्ड में एक दलित बच्ची संतोषी का 'भात -भात 'करते हुए मर जाना या जौनपुर में दलितों की बस्ती में आग लगा देना या गुजरात में दलित दूल्हे को घोड़ी ना चढ़ने देना इसी अलग दुनिया और दुनियावालों की देन है इन्हे बस चाम प्यारा है, काम नहीं;
साहित्य से लेकर समाज के कई वर्गो ने इसका विरोध किया है लेकिन अभी भी कोई विशेष सुधार दिखाई नहीं पड़ता, पूरा देश जाति संघर्ष की आग में झुलस रहा है आज जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र अछूता नहीं बचा है जंहा जाति भेद दिखाई ना देता हों इसी कारण आज देश और समाज की स्थिति भी डांवाडोल होते जा रहीं है... भारत अपने आंतरिक मामलो में हीं उलझ कर रह गया है साम्प्रदायिकता ने उसे कुछ यूँ जकड़ा है कि वह ठीक तरह से सांस भी नहीं लें पा रहा..... सत्ता लोलुप नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्युकी सांप्रदायिकता उनकी वोट की राजनीती का एक कारगर अस्त्र है |
अतः आज आवश्यकता है उन्मूलन की ज़ब तक जाति भेद का उन्मूलन ना होगा तब तक राष्ट्र का विकास भी ना होगा
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