दहेज़ : प्रथा या अभिशाप?
प्रथाओं और परम्पराओं का देश भारत, विश्व जगत में अपनी एक अलग पहचान रखता है |प्राचीनता और नवीनता के समन्वय के साथ -साथ संस्कृति और समाज इसकी एक अभिष्ट विशेषता है |ज़ब हम भारतीय संस्कृति और समाज की बात करते हैं तो हम अपने स्वर्णिम इतिहास का बखान करते अघाते नहीं, हम भारत को कभी विश्व गुरु के रूप में रूपायित करते हैं तो कभी उसे पंचशील के सिद्धांतो के पालनकर्ता के रूप में... लेकिन क्या वास्तव में आज भी ऐसा है??क्या आज भी भारत की स्थिति ऐसी है कि हम भारतवासी होने पर गर्व महसूस कर सकें और अपने देश के वर्तमान पर अघा सकें? स्त्रियों की दुर्दशा देखकर तो ऐसा नहीं लगता.. जैसा की हम जानते है कि भारतीय समाज में स्त्रियों की अनेक समस्याएं हैं उन्हीं समस्याओं में एक समस्या जो धीरे -धीरे भयावह रूप लेती जा रहीं हैं वह है - दहेज़ |
दहेज़ को प्रथा और परम्परा का रूप दें हम इस अभिशाप को पीढ़ी दर पीढ़ी और भी ह्रष्ट - पुष्ट करते जा रहें है | दहेज़ लेना आज शान -शौकत और रूतबे का बेढंगा पर्याय बन गया है |यूपी, बिहार में तो सरकारी नौकरी वाले लड़को की कीमत इस दहेज़ ने बहुत अधिक बढ़ा दी है |पूरे भारत की हीं लगभग यही स्थिति है.. आये दिन अखबारों में दहेज़ उत्पीड़न सम्बन्धी मामले छपते रहते हैं, पकड़वा विवाह जैसी समस्याओं का कारण भी ये दहेज़ हीं है, इसने भारतीय संस्कृति को उसके मूल अर्थ से स्सखलित कर उसे कुत्सित और कलंकित किया है |अतः आज आवश्यकता है कि हम दहेज़ जैसी समस्याओं को लेकर सजग और सतर्क हों तभी हमारी संस्कृति और समाज कि रक्षा हों पायेगी नहीं तो 'यत्र नारयस्तु पूज्यनते, रमनते तत्र देवता' का श्लोक केवल वेदों तक हीं सिमट कर रह जायेगा... उसे मूर्त रूप की प्राप्ति कभी ना होगी |
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